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शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

माँ काली के 108 नाम मन्त्र & कवच, Maa Kali ji Mantra

जय माँ काली भद्रकाली अष्टोत्तरशतनामावली 

१. काली
२. कापालिनी
३. कान्ता
४. कामदा
५. कामसुंदरी
६. कालरात्री
७. कालिका
८. कालभैरवपूजिता
९. कुरुकुल्ला
१०. कामिनी
११. कमनीयस्वभाविनी
१२. कुलीना
१३. कुलकर्त्री
१४. कुलवर्त्मप्रकाशिनी
१५. कस्तूरीरसनीला
१६. काम्या
१७. कामस्वरूपिणी
१८. ककारवर्णनीलया
१९. कामधेनु
२०. करालिका
२१. कुलकान्ता
२२. करालास्या
२३. कामार्त्ता
२४. कलावती
२५. कृशोदरी
२६. कामाख्या
२७. कौमारी
२८. कुलपालिनी
२९. कुलजा
३०. कुलकन्या
३१. कलहा
३२. कुलपूजिता
३३. कामेश्वरी
३४. कामकान्ता
३५. कुब्जेश्वरगामिनी
३६. कामदात्री
३७. कामहर्त्री
३८. कृष्णा
३९. कपर्दिनी
४०. कुमुदा
४१. कृष्णदेहा
४२. कालिन्दी
४३. कुलपूजिता
४४. काश्यपि
४५. कृष्णमाला
४६. कुलिशांगी
४७. कला
४८. क्रींरूपा
४९. कुलगम्या
५०. कमला
५१. कृष्णपूजिता
५२. कृशांगी
५३. कन्नरी
५४. कर्त्री
५५. कलकण्ठी
५६. कार्तिकी
५७. काम्बुकण्ठी
५८. कौलिनी
५९. कुमुदा
६०. कामजीविनी
६१. कुलस्त्री
६२. कार्तिकी
६३. कृत्या
६४. कीर्ति
६५. कुलपालिका
६६. कामदेवकला
६७. कल्पलता
६८. कामांगबद्धिनी
६९. कुन्ती
७०. कुमुदप्रिया
७१. कदम्बकुसुमोत्सुका
७२. कादम्बिनी
७३. कमलिनी
७४. कृष्णानंदप्रदायिनी
७५. कुमारिपूजनरता
७६. कुमारीगणशोभिता
७७. कुमारीरंश्चरता
७८. कुमारीव्रतधारिणी
७९. कंकाली
८०. कमनीया
८१. कामशास्त्रविशारदा
८२. कपालखड्वांगधरा
८३. कालभैरवरूपिणि
८४. कोटरी
८५. कोटराक्षी
८६. काशी
८७. कैलाशवासिनी
८८. कात्यायिनी
८९. कार्यकरी
९०. काव्यशास्त्रप्रमोदिनी
९१. कामामर्षणरूपा
९२. कामपीठनिवासिनी
९३. कंकिनी
९४. काकिनी
९५. क्रिडा
९६. कुत्सिता
९७. कलहप्रिया
९८. कुण्डगोलोद्-भवाप्राणा
९९. कौशिकी
१००. कीर्तीवर्धिनी
१०१. कुम्भस्तिनी
१०२. कटाक्षा
१०३. काव्या
१०४. कोकनदप्रिया
१०५. कान्तारवासिनी
१०६. कान्ति
१०७. कठिना
१०८. कृष्णवल्लभा 



कालीकवचम्
नारद उवाच
कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम् I
नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च सांप्रतम् II 1 II
नारायण उवाच
श्रुणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम् I
गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् II २ II
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम् I
दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सुर्यपर्वणि II ३ II
दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिः कृता पुरा I
पञ्चलक्षजपेनैव पठन् कवचमुत्तमम् II ४ II
बभूव सिद्धकवचोSप्ययोध्यामाजगाम सः I
कृत्स्रां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादतः II ५ II
नारद उवाच
श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा I
अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रुहि मे प्रभो II ६ II
नारायण उवाच
श्रुणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परामाद्भुतम् I
नारायणेन यद् दत्तं कृपया शूलिने पुरा II ७ II
त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च I
तदेव शूलिना दत्तं पुरा दुर्वाससे मुने II ८ II
दुर्वाससा च यद् दत्तं सुचन्द्राय महात्मने I
अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् II ९ II
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् I
क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रींमिति लोचने II १० II
ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु I
क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु II ११ II
ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेsधरयुग्मकम् I
ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु II १२ II
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु I
ॐ क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम II १३ II
ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदावतु I
ॐ क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु II १४ II
ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्टं सदावतु I
रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु II १५ II
ॐ ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु I
ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु II १६ II
प्राच्यां पातु महाकाली आग्नेय्यां रक्तदन्तिका I
दक्षिणे पातु चामुण्डा नैऋत्यां पातु कालिका II १७ II
 श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका I
उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनि II १८ II
ऊर्ध्वं पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वधः सदा I
जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा II १९ II
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् I
सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् II २० II
सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोSस्य प्रसादतः I
कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपतिः II २१ II
प्रचेता लोमशश्चैव यतः सिद्धो बभूव ह I
यतो हि योगिनां श्रेष्टः सौभरिः पिप्पलायनः II २२ II
यदि स्यात् सिद्धकवचः सर्वसिद्धीश्वरो भवेत् I
महादानानि सर्वाणि तपांसि च व्रतानि च I
निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् II २३ II
इदं कवचमज्ञात्वा भजेत् कालीं जगत्प्रसूम् I
शतलक्षप्रजप्तोSपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः II २४ II

ऊॅ हौं जूं सः। ऊॅ भूः भुवः स्वः ऊॅ त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उव्र्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्  मधुकर / किरण / एवं शिवंशी उर्फ बाटू को रक्षय- रक्षय - पालय-पालय ऊॅ स्वः भुवः भूः ऊॅ। ऊॅ सः जूं हौं।

ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।


II इति श्रीब्रह्मवैवर्ते कालीकवचं संपूर्णम् II

काली माँ सर्व सिद्धि प्रभावशाली मंत्र



१) || ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै: || 
पाठ : सवा लाख, पांच लाख अथवा नौ लाख जाप २) || क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा || 
३) || नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा || 
४) || ऐं नमः क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा || 


इन मंत्रो का सटीक और गुरु सानिध्य में ही सही नियमो से जाप करे | भद्रकाली माँ आपका कल्याण करे | 

एकाक्षर मन्त्र – क्रीं

यह काली का एकाक्षर मन्त्र है, परन्तु इतना शक्तिशाली है कि शास्त्रों में इसे महामंत्र की संज्ञा दी गई है। इसे मातेश्वरी काली का ‘प्रणव’ कहा जाता है और इसका जप उनके सभी रूपों की आराधना, उपासना और साधना में किया जा सकता है। वैसे इसे चिंतामणि काली का विशेष मन्त्र भी कहा जाता है।

द्विअक्षर मन्त्र – क्रीं क्रीं

इस मन्त्र का भी स्वतन्त्र रूप से जप किया जाता है लेकिन तांत्रिक साधनाएं और मन्त्र सिद्धि हेतु बड़ी संख्या में किसी भी मन्त्र का जप करने के पहले और बाद में सात – सात बार इन दोनों बीजाक्षरों के जप का विशिष्ट विधान है।

त्रिअक्षरी मन्त्र – क्रीं क्रीं क्रीं

यह काली की तांत्रिक साधनाओं और उनके प्रचंड रूपों की आराधनाओं का विशिष्ट मन्त्र है। द्विअक्षर मन्त्र के समान ही इन दोनों में से किसी एक को मन्त्र सिद्धि अथवा मन्त्रों का बड़ी संख्या में जप करते समय अनेक तंत्र – साधक प्रारंभ और अंत में सात – सात बार इसका स्तवन करते हैं।

सर्वश्रेष्ठ मन्त्र – क्रीं स्वाहा

महामंत्र ‘क्रीं’ में ‘स्वाहा’ से संयुक्त यह मन्त्र उपासना अथवा आराधना के अंत में जपने के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

ज्ञान प्रदाता मन्त्र : ह्रीं

यह भी एकाक्षर मन्त्र है। माँ काली की आराधना अथवा उपासना करने के पश्चात इस मन्त्र के नियमित जप से साधक को सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राॅस हो जाता है। इसे विशेष रूप से दक्षिण काली का मन्त्र कहा जाता है।

चेटक मन्त्र

उपरोत्त्क सभी मन्त्रों का विशेष प्रयोजनों के लिए विशिष्ट संख्या में किया जा सकता है। वैसे सभी कामनाओं की पूर्ति, हर प्रकार के कष्टों के निवारण और माँ की विशेष अनुकम्पा के लिए चेटक मन्त्रों को उनके साथ वर्णित संख्या में जपा जाता है। छह से इक्कीस अक्षरों तक के ये मन्त्र निम्रवत हैं –

क्रीं क्रीं क्री स्वाहा

पांच अक्षर के इस मन्त्र के प्रणेता स्वयं जगतपिता ब्रह्मा जी हैं। यह सभी दुखों का निवारण करके धन – धान्य बढ़ता है।

क्रीं क्रीं फट स्वाहा

छह अक्षरों का यह मन्त्र तीनों लोकों को मोहित करने वाला है। सम्मोहन आदि तांत्रिक सिंद्धियों के लिए इस मन्त्र का विशेष रूप से जप किया जाता है।

क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं स्वाहा

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चारों ध्येयों की आपूर्ति करने में समर्थ है। आठ अक्षरों का यह मन्त्र। उपासना के अंत में इस मन्त्र का जप करने पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।

ऐं नमः क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा

ग्यारह अक्षरों का यह मन्त्र अत्यंत दुर्लभ और सर्वसिंद्धियों को प्रदान करने वाला है। उपरोत्त्क पांच, छह, आठ और ग्यारह अक्षरों के इन मन्त्रों को दो लाख की संख्या में जपने का विधान है। तभी यह मन्त्र सिद्ध होता है।

क्रीं हूं हूं ह्रीं हूं हूं क्रीं स्वाहा।
क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा।
नमः ऐं क्रीं क्रीं कालिकायै स्वाहा।
नमः आं आं क्रों क्रों फट स्वाहा कालिका हूं।
क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं स्वाहा।




माँ काली आरती

अम्बे तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली | 
 तेरे ही गुण गायें भारती, ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती ||

तेरे भक्त जनों पे माता, भीर पड़ी है भारी |
दानव दल पर टूट पडो माँ, करके सिंह सवारी ||

सौ सौ सिंहों से तु बलशाली, दस भुजाओं वाली |
दुखिंयों के दुखडें निवारती, ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती ||

माँ बेटे का है इस जग में, बड़ा ही निर्मल नाता |
पूत कपूत सूने हैं पर, माता ना सुनी कुमाता ||

सब पर करुणा दरसाने वाली, अमृत बरसाने वाली |
दुखियों के दुखडे निवारती, ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती ||

नहीं मांगते धन और दौलत, न चाँदी न सोना |
हम तो मांगे माँ तेरे मन में, इक छोटा सा कोना ||

सबकी बिगडी बनाने वाली, लाज बचाने वाली |
सतियों के सत को संवारती, ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती ||

अम्बे तू है जगदम्बे काली, जय दुर्गे खप्पर वाली |
तेरे ही गुण गायें भारती, ओ मैया हम सब उतारें तेरी आरती || 






योनि मुद्रा


यौगिक दृष्टि से अपने अंदर कई प्रकार के रहस्य छिपाए रखनेवाली मुद्रा का वास्तविक नाम ‘योनि मुद्रा’ है| तत योग के अनुसार केवल हाथों की उंगलियों से महाशक्ति भगवती की प्रसन्नता के लिए योनि मुद्रा प्रदर्शित करने की आज्ञा है| प्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव लंबी योग साधना के अंतर्गत तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना से भी दृष्टिगोचर होता है| इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से साधक की प्राण-अपान वायु को मिला देनेवाली मूलबंध क्रिया को भी साथ करने से जो स्थिति बनती है, उसे ही योनि मुद्रा की संज्ञा दी है| यह बड़ी चमत्कारी मुद्रा है|
पद्मासन की स्थिति में बैठकर, दोनों हाथों की उंगलियों से योनि मुद्रा बनाकर और पूर्व मूलबंध की स्थिति में सम्यक् भाव से स्थित होकर प्राण-अपान को मिलाने की प्रबल भावना के साथ मूलाधार स्थान पर यौगिक संयम करने से कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं|
ऋषियों का मत है कि जिस योगी को उपरोक्त स्थिति में योनि मुद्रा का लगातार अभ्यास करते-करते सिद्धि प्राप्त हो गई है, उसका शरीर साधनावस्था में भूमि से आसन सहित ऊपर अधर में स्थित हो जाता है| संभवतः इसी कारण आदि शंकराचार्यजी ने अपने योग रत्नावली नामक विशेष ग्रंथ में मूलबंध का उल्लेख विशेष रूप से किया है|
मूलबंध योग की एक अद्भुत क्रिया है| इसको करने से योग की अनेक कठिनतम क्रियाएं स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं, जिनमें अश्‍विनी और बज्रौली मुद्राएं प्रमुख हैं| इन मुद्राओं के सिद्ध हो जाने से योगी में कई प्रकार की शक्तियों का उदय हो जाता है|
अश्‍विनी मुद्रा
इस मुद्रा से साधक में घोड़ों जैसी शक्ति आ जाती है, जिसे ‘हॉर्स पॉवर’ कहते हैं| इस मुद्रा में गुदा-द्वार का बार-बार संकोचन और प्रसार किया जाता है| इसी से मुद्रा की सिद्धि हो जाती है| इसके द्वारा कुण्डलिनी जागरण में सुगमता रहती है और अनेक रोग नष्ट होकर शारीरिक बल की वृद्धि होती है| अश्‍विनी मुद्रा सिद्ध होने से साधक की अकालमृत्यु कभी नहीं होती| गुदा और उदर से संबंधित रोगों का इसके द्वारा शमन होता है तथा दीर्घजीवन की उपलब्धि होती है| बिना मूलबंध के अश्‍विनी मुद्रा नहीं हो सकती|
बज्रौली मुद्रा
बज्रौली मुद्रा भी मूलबंध का अच्छा अभ्यास किए बिना किसी प्रकार संभव नहीं है| यह मुद्रा केवल योगी के लिए ही नहीं, भोगी के लिए भी अत्यंत लाभकारी है| इस मुद्रा में पहले दोनों पांवों को भूमि पर दृढ़तापूर्वक टिकाकर, दोनों पांवों को धीरे-धीरे दृढ़तापूर्वक ऊपर आकाश में उठा दें| इससे बिंदु-सिद्धि होती है|
शुक्र को धीरे-धीरे ऊपर की आकुंचन करें अर्थात् इंद्रिय के आंकुचन के द्वारा वीर्य को ऊपर की ओर खींचने का अभ्यास करें तो यह मुद्रा सिद्ध होती है| विद्वानों का मत है कि इस मुद्रा के अभ्यास में स्त्री का होना आवश्यक है, क्योंकि भग में पतित होता हुआ शुक्र ऊपर की ओर खींच लें तो रज और वीर्य दोनों ही चढ़ जाते हैं| यह क्रिया अभ्यास से ही सिद्ध होती है| कुछ योगाचार्य इस प्रकार का अभ्यास शुक्र के स्थान पर दुग्ध से करना बताते हैं| जब दुग्ध खींचने का अभ्यास सिद्ध हो जाए, तब शुक्र को खींचने का अभ्यास करना चाहिए| वीर्य को ऊपर खींचनेवाला योगी ही ऊर्ध्वरेता कहलाता है|
इस मुद्रा से शरीर हृष्ट-पुष्ट, तेजस्वी, सुंदर, सुडौल और जरा-मृत्यु रहित होता है| शरीर के सभी अवयव दृढ़ होकर मन में निश्‍चलता की प्राप्ति होती है| इसका अभ्यास अधिक कठिन नहीं है| यदि गृहस्थ भी इसके करें, तो बलवर्द्धन और सौंदर्यवर्द्धन का पूरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं|
शक्तिचालिनी मुद्रा
आठ अंगुल लंबा और चार अंगुल चौड़ा मुलायम वस्त्र लेकर नाभि पर लगाएं और कटिसूत्र में बांध लें| फिर शरीर में भस्म रमाकर सिद्धासन में बैठें और प्राण को अपान से युक्त करें| जब तक गुह्य द्वार से चलती हुई वायु प्रकाशित न हो, इस समय तक गुह्य द्वार को संकुचित रखें| इससे वायु का जो निरोध होता है, उसमें कुम्भक के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती हुई सुषुम्ना मार्ग से ऊपर जाकर खड़ी हो जाती है| योगमुद्रा से पहले इसका अभ्यास करने पर ही योनि मुद्रा की पूर्ण सिद्धि होती है|
इस मुद्रा से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है| जब तक यह सोती है, तब तक सभी आंतरिक शक्तियां सुप्त पड़ी रहती हैं| इसलिए कुण्डलिनी का जाग्रत होना साधक के लिए बहुत आवश्यक है|
प्राण-अपान को संयुक्त करने की क्रिया प्राणवायु को पूरक द्वारा भीतर खींचने और उड्डीयान बंध से अपान वायु को ऊपर की ओर आकर्षित करने से पूर्ण होती है| इसमें गुह्य प्रदेश के संकोच और विस्तार का अभ्यास होने से अधिक सरलता हो सकती है|
तड़ागी मुद्रा
दोनों पांवों को दण्ड के समान धरती पर पसार लें और हाथों से उनके अंगूठों को पकड़ने तथा दोनों जांघों पर सिर को स्थापित करें, साथ ही उदर को तड़ाग (सरोवर) के समान कर लें| यह मुद्रा अनेक रोगों और वृद्धावस्था को भी दूर करने में सहायक सिद्ध होती है|
माण्डवी मुद्रा
मुख को बंद करके जुबान को तालु में घुमाएं और सहस्रार से टपकते हुए सुधारस को जुबान से धीरे-धीरे पीने का यत्न करें| यही माण्डवी (या माण्डुकी) मुद्रा है| इसके द्वारा बालों की सफेदी, उनका झड़ना, शरीर पर झुर्रियों, मुंहासों आदि का पड़ना तथा निर्बलता आदि दूर होकर चिर-यौवन की प्राप्ति होती है| इससे रसोत्पादन होकर अमृतत्व की उपलब्धि होना संभव हो जाता है|
शाम्भवी मुद्रा
दृष्टि को दोनों भौहों के मध्य स्थिर करके एकाग्र मन से परमात्मा का चिंतन करें तो ध्यान की परिवक्वता होने पर ज्योति-दर्शन होता है| यही शाम्भवी मुद्रा है| आत्म साक्षात्कार के आकांक्षी पुरुषों के लिए यह अत्यंत कल्याणकारी मुद्रा है|
पंचधारणा मुद्रा
धारणा का अभिप्राय है, ध्यान के द्वारा ग्रहण करने की शक्ति| पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन पंच महाभूतों से यथार्थ का ज्ञान होना ही पंचधारणा मुद्रा का वास्तविक उद्देश्य है| यह मुद्रा पंच तत्वों से संबंधित होने के कारण उसको पृथक-पृथक धारणा में परिपक्व करती है, इसलिए यह निम्न पांच प्रकार की मानी जाती है-
• पार्थिवीः भूमि-संबंधी
• शाम्भवीः जल-संबंधी
• वैश्‍वानरी या आग्नेयीः अग्नि-संबंधी
• वायवीः वायु-संबंधी
• आकाशीः आकाश-संबंधी
इनकी सिद्धि होने पर मनुष्य सशरीर स्वर्गादि लोकों में आ-जा सकता है|
पाशिनी मुद्रा
दोनों पांवों को कंठ के पीछे की ओर ले जाकर उन्हें परस्पर मिलाएं और पाश के समान दृढ़ता से बांध लें| इसके अभ्यास से भी कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में बहुत सुगमता हो जाती है तथा साधक के शरीर में बल और पुष्टि का आविर्भाव होता है| मानसिक बलवर्द्धन में भी यह बहुत हितकर है|
काकी मुद्रा
मुख के होठों का इस प्रकार संकोचन करें, जिससे कि कौए की चोंच के समान उसकी आकृति बन जाए (प्रायः मुख से सीटी बजाने में भी ऐसी आकृति बन जाती है|) इस प्रकार की आकृति बनाकर धीरे-धीरे वायु खींचकर पान करें| यह ध्यान रहे कि इस मुद्रा में नासिका-छिद्रों द्वारा वायु नहीं खींची जाती (नासिका द्वारा श्‍वास नहीं लिया जाता)|
यह गुदा, उदर, कंठ और हृदय विकार आदि को दूर करने के लिए बहुत उपयोगी है| साधक की जठराग्नि तीव्र होती है और कोष्ठबद्धता आदि विकारों का शमन हो जाता है|
मातंगिनी मुद्रा
यह मुद्रा जल में कंठ पर्यन्त खड़े होकर की जाती है| इसमें नासिका से जल खींचकर मुख-द्वार से बाहर निकाल दिया जाता है| यह क्रिया बार-बार दोहराई जाती है| इस प्रकार विपरीत क्रम से बार- बार अभ्यास करें| इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में बल की वृद्धि होती है, वृद्धावस्था का आगमन रूक जाता है और मृत्यु का भी भय नहीं रहता| कुण्डलिनी जाग्रत करने में इसका सहयोग विशेषकर मिलता है|
भुजंगिनी मुद्रा
इसमें मुख को फैलाकर कंठ से बाहरी वायु खींची जाती है| तालु और जिह्वा के मध्य वायु के घूमने से शरीर में अद्भुत शक्ति का आविर्भाव होता है| यह मुद्रा अजीर्ण आदि उदर रोगों को नष्ट करने में भी बहुत उपयोगी है| इस प्रकार मुद्राओं के अभ्यास से साधक को सब प्रकार के शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल की प्राप्ति होती है| योगाचार्यों के अनुसार ‘नास्ति मुद्रासनकिंचित्‌सिद्धिदंक्षितिमण्डले (घेरण्ड संहिता)’ अर्थात् मुद्राओं के समान सिद्धिदायक कोई अन्य साधन भू-मंडल पर नहीं है| इसलिए योगसिद्धि के आकांक्षीजनों को मुद्राओं का अभ्यास करना श्रेयस्कर है|
मुद्राओं को भोगी पुरुषों के लिए भोगप्रद और मुमुक्षुओं के लिए मोक्षप्रद माना गया है| इसलिए मुद्राएं गृहस्थ और संन्यासी दोनों के लिए उपयोगी हैं| किंतु यह आवश्यक नहीं कि सभी मुद्राओं को किया जाए, वरन् जो अपनी शारीरिक स्थिति के अनुकूल और अभ्यास में सरल प्रतीत हो, उसी को करना चाहिए| ऐसा करनेवाले साधक को अवश्य ही योगसिद्धि हो सकती है और वह कुण्डलिनी जाग्रत करने में पूर्णतया समर्थ हो सकता है|
साधना करनेवाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह साधना में कायिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं पर पूरा नियंत्रण रखे तथा समय-समय पर उचित तांत्रिक प्रक्रियाओं का भी समन्वय करता रहे| इस दृष्टि से जिस प्रकार आसन पात्रासादन, अर्चन आदि में क्रियाओं का विधान है, उसी प्रकार उनके साथ कुछ मुद्रा बनाने का विधान है| ये मुद्राएं मुख्य रूप-से हाथ और उसकी उंगलियों के प्रयोग से बनती हैं| जैसे हमारा शरीर पंचतत्वमय है| अतः शास्त्रकारों ने कहा है कि इन उंगलियों के प्रयोग से इन तत्वों की न्यूनाधिकता दूर की जा सकती है तथा तत्वों की समता-विषमता से होनेवाली कमी को उंगलियों की मुद्रा से सम बनाया जा सकता है| इतना ही नहीं, ऐसी मुद्राओं के सहयोग से उन तत्वों को स्वेच्छापूर्वक घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है| ये तत्व क्रमशः अंगुष्ठ में अग्नि, तर्जनी में वायु, मध्यमा में आकाश, अनामिका में पृथ्वी और कनिष्ठिका में जल के रूप में विद्यमान रहते हैं|
‘मुदं रातीति मुद्रा,’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ये मुद्राएं देवताओं के समक्ष बनाकर दिखलाने से उन्हें प्रसन्नता प्रदान करती हैं| पूजा-विधानों में ‘मुद्रा’ एक आवश्यक अंग माना गया है| देवी-देवताओं के समक्ष प्रकट की जानेवाली मुद्राएं पृथक-पृथक कर्म की दृष्टि से हजारों प्रकार की होती हैं, जिनमें कुछ जपांगभूत हैं तो कुछ नैवेद्यांगभूत| कुछ का प्रयोग कर्मविशेष के प्रसंग में एकदंत मुद्रा, बीजापुर मुद्रा, अंकुश मुद्रा, मोदक मुद्रा आदि| ऐसे ही शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्यादि देवों की मुद्राएं हैं| इनका नित्य, नैमित्तिक और काम्य-प्रयोग की दृष्टि से भी मंत्रपूर्वक साधन होता है और मंत्र सिद्ध हो जाने पर इनके प्रयोग से अभीष्ट फल प्राप्त होता है|
देवताओं की प्रसन्नता, चित्त की शुद्धि और विविध रोगों के नाश में मुद्राओं से बड़ी सहायता मिलती है| मुद्रातत्व को समझकर, प्रत्येक योगी को इनका साधन करना चाहिए| कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में इन मुद्राओं से सहायता मिलती है| यहां हमने जिन मुद्राओं का वर्णन एवं चित्रण किया है, उसमें प्रत्येक योगी, साधक को परिचित होना चाहिए|

"योनमुद्रा"
काम उर्जा का साक्षी साधना में उपयोग करने का बेजोड़ उपाय...
सद्गुरु इसे 'योनमुद्रा' कहते हैं। जब भी मन को कामवासना पकड़े या उत्तेजना हो, तो आत्मग्लानि महसूस करते हुए इस प्रयोग को करें। उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है! तो क्यों हम इस उर्जा का, जो उठ चुकी है, यदि हम इसका उपयोग नहीं करेंगे तो यह अपना काम करेगी! 'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!! उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी! इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों हम भीतर के लिए उपयोग करें?
वे कहते हैं कि' कामवासना के पकड़ने पर, मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं। और सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम कमरे में बैठे छत को देखते हैं। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है।
हम चकित होंगे! यदि हमने मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लिया (जिसे मूलबंध लगाना कहते हैं। सक्रिय ध्यान करें तो यह 'अपने' से लगता है।) और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं, तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र (मूलाधार) पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर, यानी काम से राम की ओर बढ़ने लगती है।
...एक बात और! इस प्रयोग को हम एक महत्वपूर्ण 'समय' पर भी कर सकते हैं। जब हम रात को सोते हैं, तो हमारी श्वास गहरी होती है। यानी नाभि के नीचे कामकेन्द्र को छूती है। और सुबह तक कामकेन्द्र पर बहुत सारी उर्जा इकठ्ठी हो जाती है, जिसके कारण लिंगोत्थान होता है... बिस्तर से उठने के बाद यह उर्जा मूत्रद्वार से बाहर चली जाती है! यानी यह उर्जा बहुत थी 'कामवासना' के लिए! अर्थात हमारी जो उर्जा हम कामवासना में खर्च कर रहे हैं, वह उर्जा 'फिजूल' जा रही!! तो क्यों हम इस बाहर जाती उर्जा का 'स्खलन' से 'उर्ध्वगमन' की ओर मुंह मोड़ दें?
सुबह जैसे ही नींद से बाहर आएं, सोये रहें और आँखें बंद कर इस प्रयोग को शुरू करें। मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लें और फिर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। हम यहां एक चमत्कार घटित होते देखेंगे! कुछ ही क्षणों में उर्जा रीढ़ के माध्यम से कामकेन्द्र से उपर की ओर बहनी शुरू हो जायेगी और कामकेन्द्र शिथिल हो जायेगा। इस तरह से हम बाहर जाती उर्जा को भीतर की ओर दिशा दे देंगे, तो ध्यान के लिए हमें अलग से समय और उर्जा की जरूरत नहीं रह जायेगी। कहते हैं कि बूंद- बूंद से ही घड़ा भरता है... लेकिन घड़े में यदि छेद हो तो नहीं भरेगा! इस बाहर जाती उर्जा को भीतर लौटाना ही घड़े का छेद बंद करना है। भीतर लौटकर यह उर्जा हमारे साक्षी की ओर बहने लगती है, तथा साक्षी को और भी प्रगाढ़ करती है। यह छोटे - छोटे प्रयोग यदि हम अपनाते हैं, तो ध्यान का हमारे जीवन में प्रवेश आसान हो जाएगा।

(यहविधिओशोकीपुस्तक 'ओशोध्यानयोग' मेंसंकलितहै)

जिस व्यक्ति को संभोग का कोई अनुभव नहीं होता, वह अक्सर समाधि की तलाश में निकल जाता है। वह अक्सर सोचता है कि संभोग से कुछ

नहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन उसके पास झलक भी नहीं है,
जिससे वह समाधि की यात्रा पर निकल सके।
स्त्री-पुरुष का मिलन एक गहरा मिलन है। और जो व्यक्ति उस छोटे से मिलन को भी उपलब्ध नहीं होता, वह स्वयं के और अस्तित्व के मिलन को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। स्वयं का और अस्तित्व का मिलन तो और बड़ा मिलन है, विराट मिलन है। यह तो बहुत छोटा सा मिलन है। लेकिन इस छोटे मिलन में भी अखंडता घटित होती हैछोटी मात्रा में। एक और विराट मिलन है, जहां अखंडता घटित होती हैस्वयं के और सर्व के मिलन से। वह एक बड़ा संभोग है, और शाश्वत संभोग है।
यह मिलन अगर घटित होता है, तो उस क्षण में व्यक्ति निर्दोष हो जाता है। मस्तिष्क खो जाता है; सोच-विचार विलीन हो जाता है; सिर्फ होना,
मात्र होना रह जाता है, जस्ट बीइंग। सांस चलती है, हृदय धड़कता है,
होश होता है; लेकिन कोई विचार नहीं होता। संभोग में एक क्षण को व्यक्ति निर्दोष हो जाता है।
अगर आपके भीतर की स्त्री और पुरुष के मिलने की कला आपको जाए, तो फिर बाहर की स्त्री से मिलने की जरूरत नहीं है। लेकिन बाहर की स्त्री से मिलना बहुत आसान, सस्ता; भीतर की स्त्री से मिलना बहुत कठिन और दुरूह। बाहर की स्त्री से मिलने का नाम भोग; भीतर की स्त्री से मिलने का नाम योग। वह भी मिलन है। योग का मतलब ही मिलन है।
यह बड़े मजे की बात है। लोग भोग का मतलब तो समझते हैं मिलन और योग का मतलब समझते हैं त्याग। भोग भी मिलन है, योग भी मिलन है। भोग बाहर जाकर मिलना होता है, योग भीतर मिलना होता है। दोनों मिलन हैं। और दोनों का सार संभोग है। भीतर, मेरे स्त्री और पुरुष जो मेरे भीतर हैं, अगर वे मिल जाएं मेरे भीतर, तो फिर मुझे बाहर
की स्त्री और बाहर के पुरुष का कोई प्रयोजन रहा। और जिस व्यक्ति के भीतर की स्त्री और पुरुष का मिलन हो जाता है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। भोजन कम करने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; स्त्री से, पुरुष से भाग कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। आंखें बंद कर लेने से, सूरदास हो जाने सेआंखें फोड़ लेने सेकोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने का एकमात्र उपाय है: भीतर की स्त्री और पुरुष का मिल जाना।
ओशो







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भगवान शिव क्यों माँ काली के चरणों के नीचे लेट गये थे
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