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रविवार, 19 मई 2019

वास्तु दोष, वास्तुपुरुष, महावास्तु, वास्तु शास्त्र, Vastu Dham, Vastu Purusha, Mahavastu, Vaastu Shastra


*वास्तु दोष होने पर सबसे अधिक परेशानी परिवार के मुखिया को झेलनी पड़ती है। ऐसा मान-सम्मान, रोग आदि के रूप मे हो सकता है।*

*वह स्थान जहाँ जनजीवन होता है, वहीं वास्तुपुरुष का वास भी होता है।*

*ज्योतिष शास्त्र का सम्बंध समयानुसार है और वास्तु शास्त्र का दिशाओं से।*
*वास्तु 3 प्रकार के होते हैं :*
*घरेलू, व्यापारिक और मंदिर।*
*वास्तु दोष के मुख्य कारक*
*पंचतत्वों : पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश।*
*त्रिदोष : वात्त, पित्त और कफ।*
*त्रिगुण : सत्व, रजस और तमस।*
*वास्तु दोष का निवारण इनके द्वारा ही किया जाता है।*
*पृथ्वी तत्व की परेशानी हो तो जल तत्व बढाएं।*
*यानी पहला तत्व हर तीसरे तत्व का अवरोधक होता है।*
*जिस दिशा में बैध हो रहा हो वहाँ कोई दैविक चिंह लगाना चाहिए।*
वात्त के लिए जल और वायु को बढायें तथा
पित्त सम्बन्धी परेशानी के लिए जल तत्व बढा देना चाहिए।
कफ की परेशानी हो तो अग्नि बढायें।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार हम
40% जन्म समयानुसार,
20% वंशानुसार,
20% कर्मानुसार, और
20% वास्तु दोष रहित वातावरण अनुसार जीवन जीते हैं।
जन्म समय और वंशज होना प्राकृति के हाथ में है यानी 60% हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन सदकर्म और अच्छे वास्तु वाले वातावरण में रहने से हमें 40% अपने आज को ठीक करने का मौका मिलता है।
विषय पर लेख लिखने से पूर्व वास्तु होता क्या है, इसकी जानकारी होना जरूरी है। वास्तु शब्द का अर्थ होता है ऐसी जगह जहाँ पंचतत्वों का वास हो। वास यानी वह स्थान जहाँ किसी भी प्रकार की जड़ चेतन का निर्माण किया गया हो, वास्तु विज्ञान कहलाता है। हर वह जगह जहाँ चार दीवार हों वहाँ वास्तुपुरुष का वास होता है।
वास्तु दोष किसी भी जगह हो सकता है चाहे आपके लेखन कार्य करने की टेबल ही क्योंकि न हो। वास्तु दोष का निर्माण हम स्वयं अपनी गलतियों से करते हैं। बिना जरूरत के सामान को भी जोड़ कर रखना। किसी तरह का काम करने के बाद सामान या औजार इधर उधर रखना। फिर दौबारा जरूरत पडने पर चिखना चिल्लाना और सबको परेशान कर देना। इन सभी कारणों से वास्तु दोष बनता है।
घर को साफ रखें सभी जरूरत की चीज सम्भाल कर उनके स्थान पर रखें। गैरजरूरी वस्तुओं को घर से निकाल दें, या कबाड़ी वाले को बेच दें। सभी प्रकार की परेशानियों मुख्य कारण यही है।


*वास्तुपुरुष की पौराणिक कथा*

प्रश्न उठता है कि वास्तुपुरुष का जन्म कब और कैसे हुआ? मत्स्यपुराण भगवान शिव ओर अंधकासुर नामक राक्षस के युद्ध की बात लिखी हुई है कि इस युद्ध में थकान के कारण भगवान शिव के पसीने की एक बुंद धरातल पर गिरने से एक भयंकर भूत उत्पन्न हुआ।
इसका प्रकोप इतना भयानक था कि समस्त देव डरते हुए ब्रह्माजी से इस विपत्ति से बचाने के लिए कहने लगे तब ब्रह्मा जी ने उन्हें कहाँ आप सब मिलकर इसे अधोमुख दबोच लो और उसके बाद इसे पृथ्वी पर फैंक दो।ऐसा करने से आपका भय हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा, और इस महाभूत को वास्तुपुरुष का नाम दिया। तथा वास्तुपुरुष को कहा कि आप पर जो भी निर्माण कार्य चाहे वो मकान, दूकान, नगर, गांव, मंदिर, तालाब इत्यादि का निर्माण कार्य मनुष्य करना चाहते हैं तो सबसे पहले तुम्हारी पूजा नहीं करता हैं तो वह शीघ्र ही दरिद्रता को पायेगा या मृत्यु हो जाएगी। विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुपुरुष के विषय में लिखा गया है कि वह पृथ्वी पर अधोमुख होकर शयन करते हैं और इसके चारों तरफ अनेकों देवताओं का वास है।
*वास्तुपुरुष की तीन अवसरों पर पूजा अर्चना करनी चाहिये*
(1) निर्माण कार्य में शिलान्यास करते समय ,
(2)दूसरी बार मुख्य द्वार लगाते समय ,
(3) तीसरी बार गृह प्रवेश के समय पूजा करनी चाहिये|
गृह प्रवेश उस समय होना चाहिये जब वास्तुपुरुष की नजर शुभ फल देने वाली दिशा की तरफ हो।
*वास्तुशास्त्र के अनुसार किसी भी जगह पर निवास स्थान बनाने से पूर्व शहर कॉलोनी, गली मोहल्ले के पहले अक्षर की आपके नामाक्षर से मिलान किया जाना चाहिए। ताकि आप जान सकें कि वह स्थान आपके अनुकूल है या नहीं। इसकी गणना वास्तु शास्त्र में काकिणी संख्या के नाम से जानी जाती है।*
*इसके पश्चात जिस भूमि पर आपका सपनों का घर बनाया जा रहा है उसकी मिट्टी की जाँच करें। जैसे कि आप सभी ज्योतिषीयों को पता है कि ग्रह चार वर्ण के होते हैं : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इसी प्रकार भुमि को भी चार वर्णों में ही जाँचने की प्रक्रिया होती है।*
*ब्राह्मण वर्ण इस वर्ग के लिए ऐसी भूमि हो जहाँ की मिट्टी का श्वेत वर्ण, शुद्ध घी जैसे सुगंध आएं और सुखद अनुभव होता हो।उत्तर दिशा* *ब्राह्मण वर्ग य धार्मिक और शिक्षण संस्थान के लिए उत्तम।*
*क्षत्रिय वर्ण के लिए लाल रंग की मिट्टी कस्सैला स्वाद और कठोर होनी चाहिए।पूर्व दिशा* *सैना के लिए उत्तम।*
*वैश्य वर्ण के लिए हरितिमा रंगत की मिट्टी खट्टा मिट्ठा स्वाद और उपजाऊ जमीन होनी चाहिए।दक्षिण दिशा* *व्यापारी वर्ग के लिए उत्तम।*
*शूद्र वर्ण के लिए काली मिट्टी, मदिरा जैसी दूर्गंध ओर खरपतवार किड़ेकांटेपैदा होते हो ऐसी जगह जगह उत्तम फल देनेवाली होती है। उत्तर दिशा* *निम्न वर्ग के लिए उत्तम।*
*वास्तु शास्त्र में नौ मुख्य दिशा होती हैं तथा दसवां आकाश खाली जगह होती है:-*
*चार मुख्य दिशा : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण*
*चार कोण दिशा : सभी मुख्य दिशाओं के मध्य भाग में है। पूर्वोत्तर-ईशान कोण, दक्षिण पूर्व-अग्नि कोण, पश्चिमोत्तर-वायव्य कोण, दक्षिण पश्चिम-नैऋत्ये कोण तथा आकाश और ब्रह्म स्थान।*
*दिशा ग्रह और देवता :-*
*पूर्व :  ग्रह सूर्य,  देव इन्द्र*
*दक्षिण पूर्व (आग्नेय) : ग्रह शुक्र,  देव अग्नि*
*दक्षिण : ग्रह मंगल, देव यम*
*दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) : ग्रह राहु, देव नैऋत्ये*
*पश्चिम : ग्रह शनि, देव वरुण*
*पश्चिम उत्तर (वायव्य) : ग्रह चंद्रमा, देव वायु*
*उत्तर : ग्रह बुध, देव कुबेर*
*पूर्व उत्तर (ईशान) : ग्रह बृहस्पति, देव ईश (शिव)*
*महावास्तु मे इसके भी खंड किए जाते हैं यानी चारों कोणों के मध्य भाग को भी देखा जाता है।
ऐसा करने से वास्तु दोष को और आसानी से ठीक किया जा सकता है।*
*वास्तु चक्र के अनुसार :-*
*81 पद वास्तु ( एकाशिति वास्तु पद विंयास)वास्तु शास्त्र के अनुसार किसी भी जगह को 81बराबर खानों मे विभाजन करते हुए उन्हें 81 खाना पद वास्तु को चार परतों मे देखा जाता है तथा इसमें कुल 45 देव विराजमान हैं।*
*1. बाह्य दीवार इसे पिशाच स्थान कहते हैं।*
*2 इसके बाद मनुष्य स्थान*
*3. इसके बाद देव स्थान और अन्तिम भीतरी स्थान ब्रह्म स्थान कहलाता है।*
*बाह्य दीवार पर चारों दिशाओं में निम्नलिखित देवताओं का वास होता है :-*
*दिशा*               *32 देवता*
*पूर्व* : *1. ईश (शिखि), 2. पर्जन्य, 3. जयन्त,  4. इन्द्र ( महैन्द्र ), 5. सूर्य , 6. सत्य , 7. भृश , 8. आकाश*
*दक्षिण* : *9. अग्नि , 10. पूषा  , 11. वितथ, 12. ग्रहक्षत ( राक्षस  ), 13. यम ,  14. गंधर्व, 15. भृंगराज, 16. मृग, 17. पितृदेव या नैरुत*   
*पश्चिम* : *18. दौवारिक, 19. सुग्रीव, 20. पुष्पदंत, 21. वरुण, 22. असुर, 23. शेष, 24. रोग*  
*उत्तर* : *25. वायु, 26. नाग, 27. मुख, 28. भल्लाट, 29. सोम, 30. सर्प, 31. अदिती, 32. दीती।*
  
*जिस प्रकार ज्योतिष शास्त्र में सभी ग्रह हमें अपने शुभत्व देते हैं ऐसे ही सभी दिशाओं द्वारा हमें सब कुछ मिलता है। शुभ फल प्राप्त होने मे कमी का मुख्य कारण प्रारब्धानुसार और सही वास्तु के सकारात्मक प्रभाव में कमी होने की वजह है।*
*वास्तु शास्त्र के अनुसार सभी ग्रहों को अलग अलग दिशाओं का स्वामित्व मिला है।*
*किसी भी भूमि की दिशा जानने के लिए दिशा बोध होना जरूरी है तभी आप किसी निर्णय तक पहुंच सकते है कि परेशानी का कारण क्या है और निवारण कैसे किया जा सकता है।*
*नया निर्माण वास्तु दोष मुक्त हो सकता है लेकिन पुराने निर्माण में वास्तु दोष होने पर केवल शल्य क्रिया द्वारा बिना किसी तोड़ फोड़ के ठीक कि जाती है हाँ कुछ ज्यादा बडा वास्तुदोष होने पर थोड़ी बहुत तोड़ फोड़ भी की जा सकती है। ऐसा करने का फायदा ही मिलता है।*
*वास्तु दोष की जाँच हमेशा 0° उत्तर दिशा से ही लेकर की जाती है। इसके लिए हमें कम्पास की जरूरत होती है।जो सही दिशा बताने का यंत्र है इसमें चुम्बक लगा होता है जो उत्तर ध्रूव और दक्षिण ध्रुव की दिशानिर्देश जारी कर हमें सही दिशा बताते हैं।*
*दिशा निर्देश*
*ईशान कोण और ब्रह्म स्थान 100% खाली या खुला रखना चाहिए व अन्य सभी दिशाओं से नीचा रखना चाहिए।*
वास्तु में द्वार व अन्य वेध :-
मुख्य द्वार से प्रकाश व वायु को रोकने वाली किसी भी प्रतिरोध को द्वारवेध कहा जाता है अर्थात् मुख्य द्वार के सामने बिजली, टेलिफोन का खम्भा, वृक्ष, पानी की टंकी, मंदिर, कुआँ आदि को द्वारवेध कहते हैं। भवन की ऊँचाई से दो गुनी या अधिक दूरी पर होने वाले प्रतिरोध द्वारवेध नहीं होते हैं। द्वारवेध निम्न भागों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं-
कूपवेधः मुख्य द्वार के सामने आने वाली भूमिगत पानी की टंकी, बोर, कुआँ, शौचकूप आदि कूपवेध होते हैं और धन हानि का कारण बनते हैं।
स्तंभ वेधः मुख्य द्वार के सामने टेलिफोन, बिजली का खम्भा, डी.पी. आदि होने से रहवासियों के मध्य विचारों में भिन्नता व मतभेद रहता है, जो उनके विकास में बाधक बनता है।
स्वरवेधः द्वार के खुलने बंद होने में आने वाली चरमराती ध्वनि स्वरवेध कहलाती है जिसके कारण आकस्मिक अप्रिय घटनाओं को प्रोत्साहन मिलता है। चूल मजागरा (Hinges) में तेल डालने से यह ठीक हो जाता है।
ब्रह्मवेधः मुख्य द्वार के सामने कोई तेलघानी, चक्की, धार तेज करने की मशीन आदि लगी हो तो ब्रह्मवेध कहलाती है, इसके कारण जीवन अस्थिर व रहवासियों में मनमुटाव रहता है।
कीलवेधः मुख्य द्वार के सामने गाय, भैंस, कुत्ते आदि को बाँधने के लिए खूँटे को कीलवेध कहते हैं, यह रहवासियों के विकास में बाधक बनता है।
वास्तुवेधः द्वार के सामने बना गोदाम, स्टोर रूम, गैराज, आऊटहाऊस आदि वास्तुवेध कहलाता है जिसके कारण सम्पत्ति का नुकसान हो सकता है।
मुख्य द्वार भूखण्ड की लम्बाई या चौड़ाई के एकदम मध्य में नहीं होना चाहिए, वरन किसी भी मंगलकारी स्थिती की तरफ थोड़ा ज्यादा होना चाहिए।
मुख्य द्वार के समक्ष कीचड़, पत्थर ईंट आदि का ढेर रहवासियों के विकास में बाधक बनता है।
मुख्य द्वार के सामने लीकेज आदि से एकत्रित पानी रहने वाले बच्चों के लिए नुकसानदायक होता है।
मुख्य द्वार के सामने कोई अन्य निर्माण का कोना अथवा दूसरे दरवाजे का हिस्सा नहीं होना चाहिए।
मुख्य द्वार के ठीक सामने दूसरा उससे बड़ा मुख्य द्वार जिसमें पहला मुख्य द्वार पूरा अंदर आ जाता हो तो छोटे मुख्य द्वार वाले भवन की धनात्मक ऊर्जा बड़े मुख्य द्वार के भवन में समाहित हो जाती है और छोटे मुख्य द्वारवाला भवन वहाँ के निवासियों के लिए अमंगलकारी रहता है।
मुख्यद्वार के पूर्व, उत्तर या ईशान में कोई भट्टी आदि नहीं होना चाहिए और दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय अथवा नैऋत्य में पानी की टंकी, खड्डा कुआँ आदि हानिकारक है। यह मार्गवेध कहलाती है और परिवार के मुखिया के समक्ष रूकावटें पैदा होने का कारक है।
भवन वेधः मकान से ऊँची चारदीवारी होना भवन वेध कहलाता है। जेलों के अतिरिक्त यह अक्सर नहीं होता है। यह आर्थिक विकास में बाधक है।
दो मकानों का संयुक्त प्रवेश द्वार नहीं होना चाहिए। वह एक मकान के लिए अमंगलकारी बन जाता है।
मुख्यद्वार के सामने कोई पुराना खंडहर आदि उस मकान में रहने वालों के दैनिक हानि और व्यापार-धंधे बंद होने का सूचक है।
*छाया-वेध :*
किसी वृक्ष, मंदिर, ध्वजा, पहाड़ी आदि की छाया प्रातः 10 से सायं 3 बजे के मध्य मकान पर पड़ने को छाया वेध कहते हैं। यह निम्न 5 है।
मंदिर छाया वेधः विवाह में देर व वंशवृद्धि अवरोध
ध्वज छाया वेधः स्वास्थ्य मे खराबी
वृक्ष छायावेधः विकास में बाधा
पर्वत छायावेध : मान-सम्मान में कमी.
भवन कूप छायावेधः धन हानि
द्वारवेध के ज्यादातर प्रतिरोध जिस द्वार में वेध आ रहा है उसमें श्री पर्णी∕सेवण की लकड़ी की एक कील जैसी बनाकर लगाने से ठीक होते पाये गये हैं।
*दक्षिण पश्चिम दिशा में निर्माण कार्य हमेशा अन्य दिशाओं से उँचा रखा जाता है यहां परिवार के मुखिया का कमरा बनाया जाना चाहिए।*
*ऐसी भूमि जिसके दक्षिणी दिशा में शमशान घाट हो और ईशान कोण में मंदिर हो तो ऐसी जगह खुशहाली होगी।*
*ज्योतिष शास्त्र हो या वास्तु शास्त्र दोनों में उपाय केवल पाँच तरह से ही करवाये जाते हैं।*
*यंत्र, मंत्र, होम, औषधि और स्नान।*
*वास्तु शास्त्री जब किसी का वास्तु दोष दूर करता है तो जाने - अंजाने वो दुसरो के दूषित कर्म फल खुद के उपर ले लेता है. ज्यादातर वास्तु शास्त्री इस रहस्य से अंजान होते है।*
जिस भी दिशा में परेशान करने वाली स्थिति का निवारण करना हो तो उससे सम्बंधित ग्रह का यंत्र स्थापित किया जाता है।
प्रश्नोंत्तर : 


1. घर मे बरकत : बरकत के लिए गृह स्वामी के जीवन मे समृद्धि, स्वास्थ, तथा एक धनात्मक स्थायित्व लाने के लिए उसका शयन कक्ष दक्षिण-पश्चिम में होना आवश्यक है. कार्य स्थल पर इसी सिद्धांत के अनुसार अपनी बैठक रखनी चाहिए साथ में यह ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि, कार्य स्थल में बैठते समय मुंह उत्तर, पूर्व या ईशान दिशा की तरफ होना चाहिए.
गृह स्वामी को अपनी तिजोरी (या वो अलमारी जिसमें घर की धन संपत्ति रखी जाती है) इस तरह रखनी चाहिए कि उसका द्वार हमेशा उत्तर याने कुबेर की दिशा में खुले.
  किचन (रसोई घर) दक्षिण-पूर्व मे इस तरह बनाएं की भोजन पकाते समय गृहणी का मुंह पूर्व की ओर रहे, अच्छा हो की   पूर्व दिशा में खिडक़ी भी हो.
संपत्ति की सुरक्षा तथा परिवार की समृद्धि के लिए शौचालय, स्नानागार आदि उत्तर-पश्चिम के कोने में बनाएं जाने  चाहिए.
  कारोबार में अकाउंट तथा रोकड़ (कैश) विभाग उत्तर दिशा में बनाना चाहिए.
  घर के बीच का स्थान (जो की वास्तु शास्त्र में ब्रम्हस्थान कहलाता है) को साफ़-सुथरा रखा जाना चाहिए।


2. घर के सभी सदस्यों का आपस मे प्यार रहे।

3. घर मे सुख समृद्धि बढ़े।
बांस की बनी हुई बांसुरी भगवान श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है। जिस घर में बांसुरी रखी होती है, उस परिवार में परस्पर प्रेम और सहयोग तो बना रहता ही है साथ ही उस घर में धन-वैभव, सुख-समृद्धि की भी कोई कमी नहीं रहती है। ध्यान दीजियेगा की बांसुरी टूटी हुई न हो और उस पर कोई रेशमी मोटा धागा अवश्य बांध दें।


4. रोग आदि से घर मुक्त हो।
पूर्व दिशा से सकारात्मक ऊर्जा का आवाहन होता रहे, सूर्य यंत्र मंत्र की स्थापना कर सकते हैं और पश्चिम दिशा में दिशा स्वामी के यंत्र मंत्र स्थापित करने वाले लोग स्दैव स्वास्थ्य लाभ पाते और खुश रहते हैं।


*वास्तु ओर रोग*
हमारे शरीर में होनेवाले रोग अथवा बीमारियां कुछ हद तक हमारे घर की वास्तु पर भी निर्भर करती है। मेने बहुत से घरो में कुछ  साधारण बदलाव ला कर वहां रहने वालो को रोग मुक्त किया है। हम सभी जानते है, कि हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है तथा " वास्तु - शास्त्र " भी पांच तत्वों को एक संतुलित रूप में लेने का नाम है। अगर कोई भी तत्व हमें ज्यादा या कम मिलता है , तो हमारा शरीर घिर जाता ना ना प्रकार कि ब्याधियों से...... तो चलिये आज बात करते है वास्तु ओर उसके कारन होनेवाले रोगो की ........!!!!!
वास्तु सम्मत भवन आज सभी बनाना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण से पूर्व सलाह लेना आवश्यक समझने लगे हैं। वास्तु सम्मत भवन बनाने से सुख, शान्ति व समृद्धि घर में निवास करती है और शरीर स्वस्थ रहता है। चिकित्सा पर धन का खर्च कम होता है।

वायु और भवन
शरीर स्वस्थ है तो सब कुछ है। शरीर स्वस्थ नहीं तो सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। शरीर में प्राण तत्व की महिमा सर्वविदित है। भवन में उत्तर - पश्चिम भाग जिसे वायव्य भी कहते हैं। यह स्थान वायु तत्व का कारक है। इस स्थान को खुला रखना चाहिए। यदि यह भाग खुला नहीं है तो व्यक्ति को वायु विकार व मानसिक रोगों के होने की संभावना रहती है। वस्तुतः यह भाग उत्तरपूर्व की अपेक्षा ऊंचा और दक्षिणपश्चिम से कुछ नीचा होना शुभ होता है।

जल और भवन
भवन के उत्तर - पूर्व भाग अथार्थ ईशान कोण का संबंध जल तत्व से है। यह स्थान दूषित हो जाए तो भवन में रहने वाले लोगों में जल तत्त्व का संतुलन बिगड़ जाता है। यह भाग नीचा, खुला, हल्का एवं साफ रहना चाहिए और यदि ऐसा नहीं रहेगा तो भवन में रहने वाले मानसिक, आर्थिक एवं शारीरिक रूप से परेशानियां होती देखि गयी है। यहां तक शरीर भी साथ नहीं देता है। इस क्षेत्र में सीढियाँ एवं शौचालय कदापि नहीं होना चाहिए। यदि है तो घर में कोई न कोई सदैव बीमार रहता है।
यदि घर में कोई बीमार है तो रोगी को औषधि या सेवन के लिए कोई भी वस्तु उत्तर व पूर्व दिशा की ओर मुख करके देनी चाहिए। ईशान कोण खराब होने से उदर विकार, वैचारिक मतभेद एवं गृहक्लेश होने की संभावना भी अत्यधिक होती है। घर के लोग चहुं दिशा में मुंह रखते है अर्थात्‌ एक छत के नीचे रहकर भी किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं रहता है। एक दूसरे की कटी पर रहते हैं। ईशान कोण कदापि कटा न हो। मेने बहुत से घरो में ईशान कोण में गड़बड़ी की वजह से रक्त विकार व यौन रोग या लाईलाज रोग भी देखे है। ईशान का पूर्वी भाग ऊंचा होने से घर के पुरुष अधिक बीमार रहते हैं।

अग्नि और भवन
दक्षिण पूर्व का भाग या आग्नेय कोण का सीधा सम्बन्ध अग्नि से रहता है। इस स्थान पर रसोई बनाना उत्तम है। यहां जल एकत्र नहीं करना चाहिए। यदि करेंगे तो पित्त व रक्त विकार से कष्ट उठाएंगे। पेट सदैव खराब रहेगा। यदि अग्नि कोण बढ़ा हो तो भवन वासियों को वायु व मानसिक परेशानियों से अधिक जूझना पड़ता है।
आकाश और भवन
घर में आकाश तत्त्व को भी स्थान देना चाहिए इससे समस्त दिशाएं सन्तुलित हो जाती हैं। इसका प्रतीक भवन का खुला भाग एवं भवन का आंगन है। भवन में खुला भाग व आंगन नहीं है तो भी दिशाएं सन्तुलित नहीं रहती हैं। भवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से और वास्तु सम्मत बनाना अत्यावश्यक है। यदि आप ऐसे नहीं बनाएंगे तो आप किसी न किसी समस्या से परेशान रहेंगे। भवन में ब्रह्म स्थान की विशेष महत्ता है। भवन के मध्य स्थान को ब्रह्म स्थान कहते हैं। इसका सीधा सम्बन्ध आकाश तत्त्व से होता है। इस स्थान को खुला बनाना चाहिए और भवन बनाते समय इस स्थान पर कोई निर्माण नहीं करना चाहिए। प्राचीन काल में इस स्थान पर आंगन होता था एवं तुलसी का पौधा लगा रहता था। इससे अनेक व्याधियों से मुक्ति मिलती है एवं वातावरण प्रदुषण मुक्त रहता है।


अपने घर को आठों दिशाओं से कैसे रखें सुरक्षित वास्तु शास्त्र। Vastu Shastra