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गुरुवार, 29 मार्च 2018

ओशो गीता दर्शन प्रवचन 14, भाग 1

*ओशो :*  कर्मयोग का आधार—सूत्र. अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं वह मुझसे बहता है, लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है। लेकिन हम उलटे चलते हैं, फल की आकांक्षा पहले और कर्म पीछे। हम बैलगाड़ी को आगे और बैलों को पीछे बांधते हैं। कृष्ण कह रहे हैं, कर्म पहले, फल पीछे आता है—लाया नहीं जाता। लाने की कोई सामर्थ्य मनुष्य की नहीं है; करने की सामर्थ्य मनुष्य की है। क्यों? ऐसा क्यों है? क्योंकि मैं अकेला नहीं हूं विराट है। मैं सोचता हूं कल सुबह उठूंगा, आपसे मिलूंगा। लेकिन कल सुबह सूरज भी उगेगा? कल सुबह भी होगी? जरूरी नहीं है कि कल सुबह हो ही। मेरे हाथ में नहीं है कि कल सूरज उगे ही। एक दिन तो ऐसा जरूर आएगा कि सूरज डूबेगा और उगेगा नहीं। वह दिन कल भी हो सकता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अब यह सूरज चार हजार साल से ज्यादा नहीं चलेगा। इसकी उम्र चुकती है। यह भी बूढ़ा हो गया है। इसकी किरणें भी बिखर चुकी हैं। रोज बिखरती जा रही हैं न मालूम कितने अरबों वर्षों से! अब उसके भीतर की भट्ठी चुक रही है, अब उसका ईंधन चुक रहा है। चार हजार साल हमारे लिए बहुत बड़े हैं, सूरज के लिए ना—कुछ। चार हजार साल में सूरज ठंडा पड़ जाएगा—किसी भी दिन। जिस दिन ठंडा पड़ जाएगा, उस दिन उगेगा नहीं; उस दिन सुबह नहीं होगी। उसकी पहली रात भी लोगों ने वचन दिए होंगे कि कल सुबह आते हैं—निश्चित। लेकिन छोड़ें! सूरज चार हजार साल बाद डूबेगा और नहीं उगेगा। हमारा क्या पक्का भरोसा है कि कल सुबह हम ही उगेंगे! कल सुबह होगी, पर हम होंगे? जरूरी नहीं है। और कल सुबह भी होगी, सूरज भी उगेगा, हम भी होंगे, लेकिन वचन को पूरा करने की आकांक्षा होगी? जरूरी नहीं है। एक छोटी—सी कहानी कहूं। सुना है मैंने कि चीन में एक सम्राट ने अपने मुख्य वजीर को, बड़े वजीर को फांसी की सजा दे दी। कुछ नाराजगी थी। लेकिन नियम था उस राज्य का कि फांसी के एक दिन पहले स्वयं सम्राट फांसी पर लटकने वाले कैदी से मिले, और उसकी कोई आखिरी आकांक्षा हो तो पूरी कर दे। निश्चित ही, आखिरी आकांक्षा जीवन को बचाने की नहीं हो सकती थी। वह बंदिश थी। उतनी भर आकांक्षा नहीं हो सकती थी। सम्राट पहुंचा—कल सुबह फांसी होगी—आज संध्या, और अपने वजीर से पूछा कि क्या तुम्हारी इच्छा है? पूरी करूं! क्योंकि कल तुम्हारा अंतिम दिन है। वजीर एकदम दरवाजे के बाहर की तरफ देखकर रोने लगा। सम्राट ने कहा, तुम और रोते हो? कभी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता, तुम्हारी आंखें और आंसुओ से भरी! बहुत बहादुर आदमी था। नाराज सम्राट कितना ही हो, उसकी बहादुरी पर कभी शक न था। तुम और रोते हो! क्या मौत से डरते हो? उस वजीर ने कहा, मौत! मौत से नहीं रोता, रोता किसी और बात से हूं। सम्राट ने कहा, बोलो, मैं पूरा कर दूं। वजीर ने कहा, नहीं, वह पूरा नहीं हो सकेगा, इसलिए जाने दें। सम्राट जिद्द पर अड़ गया कि क्यों नहीं हो सकेगा? आखिरी इच्छा मुझे पूरी ही करनी है। तो उस वजीर ने कहा, नहीं मानते हैं तो सुन लें, कि आप जिस घोड़े पर बैठकर आए हैं, उसे देखकर रोता हूं। सम्राट ने कहा, पागल हो गए? उस घोड़े को देखकर रोने जैसा क्या है? वजीर ने कहा, मैंने एक कला सीखी थी; तीस वर्ष लगाए उस कला को सीखने में। वह कला थी कि घोड़ों को आकाश में उड़ना सिखाया जा सकता है, लेकिन एक विशेष जाति के घोड़े को। उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। और कल सुबह मैं मर रहा हूं जो सामने घोड़ा खड़ा है, वह उसी जाति का है, जिस पर आप सवार होकर आए हैं। सम्राट के मन को लोभ पकड़ा। आकाश में घोड़ा उड़ सके, तो उस सम्राट की कीर्ति का कोई अंत न रहे पृथ्वी पर। उसने कहा, फिक्र छोडो मौत की! कितने दिन लगेंगे, घोड़ा आकाश में उड़ना सीख सके? कितना समय लगेगा न: उस वजीर ने कहा, एक वर्ष। सम्राट ने कहा, बहुत ज्यादा समय नहीं है। अगर घोड़ा उड़ सका तो ठीक, अन्यथा मौत एक साल बाद। फांसी एक साल बाद भी लग सकती है, अगर घोड़ा नहीं उड़ा। अगर उड़ा तो फांसी. से भी बच जाओगे, आधा राज्य भी तुम्हें भेंट कर दूंगा। वजीर घोड़े पर बैठकर घर आ गया। पत्नी—बच्चे रो रहे थे, बिलख रहे थे। आखिरी रात थी। घर आए वजीर को देखकर सब चकित हुए। कहा, कैसे आ गए? वजीर ने कहानी बताई। पत्नी और जोर से रोने लगी। उसने कहा, तुम पागल तो नहीं हो? क्योंकि मैं भलीभांति जानती हूं तुम कोई कला नहीं जानते, जिससे घोड़ा उड़ना सीख सके। व्यर्थ ही झूठ बोले। अब यह साल तो हमें मौत से भी बदतर हो जाएगा। और अगर मांगा ही था समय, तो इतनी कंजूसी क्या की? बीस, पच्चीस, तीस वर्ष मांग सकते थे! एक वर्ष तो ऐसे चुक जाएगा कि अभी आया अभी गया, रोते—रोते चुक जाएगा। उस वजीर ने कहा, फिक्र मत कर; एक वर्ष बहुत लंबी बात है। शायद, शायद बुद्धिमानी के बुनियादी सूत्र का उसे पता था। और ऐसा ही हुआ। वर्ष बड़ा लंबा शुरू हुआ। पत्नी ने कहा, कैसा लंबा! अभी चुक जाएगा। वजीर ने कहा, क्या भरोसा है कि मैं बचूं वर्ष में?, क्या भरोसा है, घोड़ा बचे? क्या भरोसा है, राजा बचे? बहुत—सी कंडीशंस पूरी हों, तब वर्ष पूरा होगा। और ऐसा हुआ कि न वजीर बचा, न घोड़ा बचा, न राजा बचा। वह वर्ष के पहले तीनों ही मर गए। कल की कोई भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। फल सदा कल है, फल सदा भविष्य में है। कर्म सदा अभी है, यहीं। कर्म किया जा सकता है। कर्म वर्तमान है, फल भविष्य है। इसलिए भविष्य के लिए आशा बांधनी, निराशा बांधनी है। कर्म अभी किया जा सकता है, अधिकार है। वर्तमान में हम हैं। भविष्य में हम होंगे, यह भी तय नहीं। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तय नहीं। हम अपनी ओर से कर लें, इतना काफी है। हम मांगें न, हम अपेक्षा न रखें, हम फल की प्रतीक्षा न करें, हम कर्म करें और फल प्रभु पर छोड़ दें—यही बुद्धिमानी का गहरे से गहरा सूत्र है। इस संबंध में यह बहुत मजेदार बात है कि जो लोग जितनी ज्यादा फल की आकांक्षा करते हैं, उतना ही कम कर्म करते हैं। असल में फल की आकांक्षा में इतनी शक्ति लग जाती है कि कर्म करने योग्य बचती नहीं। असल में फल की आकांक्षा में मन इतना उलझ जाता है, भविष्य की यात्रा पर इतना निकल जाता है कि वर्तमान में होता ही नहीं। असल में फल की आकांक्षा में चित्त ऐसा रस से भर जाता है कि कर्म विरस हो जाता है, रसहीन हो जाता है। इसलिए यह बहुत मजे का दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जितना फलाकांक्षा से भरा चित्त, उतना ही कर्महीन होता है। और जितना फलाकांक्षा से मुक्त चित्त, उतना ही पूर्णकर्मी होता है। क्योंकि उसके पास कर्म ही बचता है, फल तो होता नहीं, जिसमें बंटवारा कर सके। सारी चेतना, सारा मन, सारी शक्ति, सब कुछ इसी क्षण, अभी कर्म पर लग जाती है। स्वभावत:, जिसका सब कुछ कर्म पर लग जाता है, उसके फल के आने की संभावना बढ़ जाती है। स्वभावत:, जिसका सब कुछ कर्म पर नहीं लगता, उसके फल के आने की संभावना कम हो जाती है। इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूं कि जो जितनी फलाकांक्षा से भरा है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद कम है। और जिसने जितनी फल की आकांक्षा छोड़ दी है, उतनी ही फल के आने की उम्मीद ज्यादा है। यह जगत बहुत उलटा है। और परमात्मा का गणित साधारण गणित नहीं है, बहुत असाधारण गणित है। जीसस का एक वचन है कि जो बचाएगा, उससे छीन लिया जाएगा। जो दे देगा, उसे सब कुछ दे दिया जाएगा। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाता है, व्यर्थ ही अपने को खोता है। क्योंकि उसे परमात्मा के गणित का पता नहीं है। जो अपने को खोता है, वह पूरे परमात्मा को ही पा लेता है। तो जब कर्म का अधिकार है और फल की आकांक्षा व्यर्थ है, ऐसा कृष्ण कहते हैं, तो यह मत समझ लेना कि फल मिलता नहीं, ऐसा भी मत समझ लेना कि फल का कोई मार्ग नहीं है। कर्म ही फल का मार्ग है, आकांक्षा, फल की आकांक्षा, फल का मार्ग नहीं है। इसलिए कृष्ण जो कहते हैं, उससे फल की अधिकतम, आप्टिमम संभावना है मिलने की। और हम जो करते हैं, उससे फल के खोने की मैक्सिमम, अधिकतम संभावना है और लघुतम, मिनिमम मिलने की संभावना है। जो फल की सारी ही चिंता छोड़ देता है, अगर धर्म की भाषा में कहें, तो कहना होगा, परमात्मा उसके फल की चिंता कर लेता है। असल में छोड़ने का भरोसा इतना बड़ा है, छोड़ने का संकल्प इतना बड़ा है, छोड़ने की श्रद्धा इतनी बड़ी है कि अगर इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए भी परमात्मा से कोई प्रत्युत्तर नहीं है, तो फिर परमात्मा नहीं हो सकता है। इतनी बड़ी श्रद्धा के लिए—कि कोई कर्म करता है और फल की बात ही नहीं करता, कर्म करता है और सो जाता है और फल का स्वप्न भी नहीं देखता—इतनी बड़ी श्रद्धा से भरे हुए चित्त को भी अगर फल न मिलता हो, तो फिर परमात्मा के होने का कोई कारण नहीं है। इतनी श्रद्धा से भरे चित्त के चारों ओर से समस्त शक्तियां दौड़ पड़ती हैं। और जब आप फलाकांक्षा करते हैं, तब आपको पता है, आप अश्रद्धा कर रहे हैं! शायद इसको कभी सोचा न हो कि फलाकांक्षा अश्रद्धा, गहरी से गहरी अनास्था, और गहरी से गहरी नास्तिकता है। जब आप कहते हैं, फल भी मिले, तो आप यह कह रहे हैं कि अकेले कर्म से निश्चय नहीं है फल का, मुझे फलकी आकांक्षा भी करनी पड़ेगी। आप कहते हैं, दो और दो चार जोड़ता तो हूं? जुड़कर चार हों भी। इसका मतलब यह है कि दो और दो जुड़कर चार होते हैं, ऐसे नियम की कोई भी श्रद्धा नहीं है। हों भी, न भी हों! जितना अश्रद्धालु चित्त है, उतना फलातुर होता है। जितना श्रद्धा से परिपूर्ण चित्त है, उतना फल को फेंक देता है—जाने समष्टि, जाने जगत, जाने विश्व की चेतना। मेरा काम पूरा हुआ, अब शेष काम उसका है। फल की आकांक्षा वही छोड़ सकता है, जो इतना स्वयं पर, स्वयं के कर्म पर श्रद्धा से भरा है। और स्वभावत: जो इतनी श्रद्धा से भरा है, उसका कर्म पूर्ण हो जाता है, टोटल हो जाता है—टोटल एक्ट। और जब कर्म पूर्ण होता है, तो फल सुनिश्चित है। लेकिन जब चित्त बंटा होता है फल के लिए और कर्म के लिए, तब जिस मात्रा में फल की आकांक्षा ज्यादा है, कर्म का फल उतना ही अनिश्चित है। सुबह एक मित्र आए। उन्होंने एक बहुत बढ़िया सवाल उठाया। मैं तो चला गया। शायद परसों मैंने कहीं कहा कि एक छोटे—से मजाक से महाभारत पैदा हुआ। एक छोटे—से व्यंग्य से द्रौपदी के, महाभारत पैदा हुआ। छोटा—सा व्यंग्य द्रौपदी का ही, दुर्योधन के मन में तीर की तरह चुभ गया और द्रौपदी नग्न की गई, ऐसा मैंने कहा। मैं तो चला गया। उन मित्र के मन में बहुत तूफान आ गया होगा। हमारे मन भी तो बहुत छोटे—छोटे प्यालियों जैसे हैं, जिनमें बहुत छोटे—से हवा के झोंके से तूफान आ जाता है—चाय की प्याली से ज्यादा नहीं! तूफान आ गया होगा। मैं तो चला गया, मंच पर वे चढ़ आए होंगे। उन्होंने कहा, तद्दन खोटी बात छे, बिलकुल झूठी बात है, द्रौपदी कभी नग्न नहीं की गई। द्रौपदी नग्न की गई; हुई नहीं—यह दूसरी बात है। द्रौपदी पूरी तरह नग्न की गई; हुई नहीं—यह बिलकुल दूसरी बात है। करने वालों ने कोई कोर—कसर न छोड़ी थी। करने वालों ने सारी ताकत लगा दी थी। लेकिन फल आया नहीं, किए हुए के अनुकूल नहीं आया फल—यह दूसरी बात है। असल में, जो द्रौपदी को नग्न करना चाहते थे, उन्होंने क्या रख छोड़ा था। तरफ से कोई कोर—कसर न थी। लेकिन हम सभी कर्म करने वालों को, अज्ञात भी बीच में उतर आता है, इसका कभी कोई पता नहीं है। वह जो कृष्ण की कथा है, वह अज्ञात के उतरने की कथा है। अज्ञात के भी हाथ हैं, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते। हम ही नहीं हैं इस पृथ्वी पर। मैं अकेला नहीं हूं। मेरी अकेली आकांक्षा नहीं है, अनंत आकांक्षाए हैं। और अनंत की भी आकांक्षा है। और उन सब के गणित पर अंततः तय होगा कि क्या हुआ। अकेला दुर्योधन ही नहीं है नग्न करने में, द्रौपदी भी तो है जो नग्न की जा रही है। द्रौपदी की भी तो चेतना है, द्रौपदी का भी तो अस्तित्व है। और अन्याय होगा यह कि द्रौपदी वस्तु की तरह प्रयोग की जाए। उसके पास भी चेतना है और व्यक्ति है, उसके पास भी संकल्प है। साधारण स्त्री नहीं है द्रौपदी। सच तो यह है कि द्रौपदी के मुकाबले की स्त्री पूरे विश्व के इतिहास में दूसरी नहीं है। कठिन लगेगी बात। क्योंकि याद आती है सीता की, याद आती है सावित्री की। और भी बहुत यादें हैं। फिर भी मैं कहता हूं द्रौपदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। द्रौपदी बहुत ही अद्वितीय है। उसमें सीता की मिठास तो है ही, उसमें क्लियोपेट्रा का नमक भी है। उसमें क्लियोपेट्रा का सौंदर्य तो है ही, उसमें गार्गी का तर्क भी है। असल में पूरे महाभारत की धुरी द्रौपदी है। वह सारा युद्ध उसके आस—पास हुआ है। लेकिन चूंकि पुरुष कथाएं लिखते हैं, इसलिए कथाओं में पुरुष—पात्र बहुत उभरकर दिखाई पड़ते हैं। असल में दुनिया की कोई महाकथा स्त्री की धुरी के बिना नहीं चलती। सब महाकथाएं स्त्री की धुरी पर घटित होती हैं। वह बड़ी रामायण सीता की धुरी पर घटित हुई है, उसमें केंद्र में सीता है। राम और रावण तो ट्राएंगल के दो छोर हैं, धुरी पर सीता है। ये कौरव और पांडव और यह सारा पूरा महाभारत और यह सारा युद्ध द्रौपदी की धुरी पर घटा है। उस. युग की और सारे युगों की सुंदरतम स्त्री है वह। नहीं, आश्चर्य नहीं है कि दुर्योधन ने भी उसे चाहा हो। असल में, उस युग में कौन पुरुष होगा जिसने उसे न चाहा हो! उसका अस्तित्व उसके प्रति चाह पैदा करने वाला था। दुर्योधन ने भी उसे चाहा है और फिर वह चली गई अर्जुन के हाथ। और यह भी बड़े मजे की बात है कि द्रौपदी को पांच भाइयों में बांटना पड़ा। कहानी बडी सरल है, उतनी सरल घटना नहीं हो सकती। कहानी तो इतनी ही सरल है कि अर्जुन ने आकर बाहर से कहा कि मां देखो, हम क्या ले आए हैं! और मां ने कहा, जो भी ले आए हो, वह पांचों भाई बांट लो। लेकिन इतनी सरल घटना हो नहीं सकती। क्योंकि जब बाद में मां को भी तो पता चला होगा कि यह मामला वस्तु का नहीं, स्त्री का है। यह कैसे बांटी जा सकती है! तो कौन—सी कठिनाई थी कि कुंती कह देती कि भूल हुई। मुझे क्या पता कि तुम पत्नी ले आए हो! नहीं, लेकिन मैं जानता हूं कि जो संघर्ष दुर्योधन और अर्जुन के बीच होता, वह संघर्ष पांच भाइयों के बीच भी हो सकता था। द्रौपदी ऐसी थी, वे पांच भाई भी कट—मर सकते थे उसके लिए। उसे बांट देना ही सुगमतम राजनीति थी। वह घर भी कट सकता था। वह महायुद्ध, जो पीछे कौरवों—पांडवों में हुआ, वह पांडवों—पांडवों में भी हो सकता था। इसलिए कहानी मेरे लिए उतनी सरल नहीं है। कहानी बहुत प्रतीकात्मक है और गहरी है। वह यह खबर देती है कि स्त्री वह ऐसी थी कि पांच भाई भी लड़ जाते। इतनी गुणी थी, साधारण नहीं थी, असाधारण थी। उसको नग्न करना आसान बात नहीं थी, आग से खेलना था। तो अकेला दुर्योधन नहीं है कि नग्न कर ले। द्रौपदी भी है। और ध्यान रहे, बहुत बातें हैं इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी हैं। जब तक कोई स्त्री स्वयं नग्न न होना चाहे, तब तक इस जगत में कोई पुरुष किसी स्त्री को नग्न नहीं कर सकता है, नहीं कर पाता है। वस्त्र उतार भी ले, तो भी नग्न नहीं कर सकता है। नग्न होना बड़ी घटना है वस्त्र उतरने से, निर्वस्त्र होने से नग्न होना बहुत भिन्न घटना है। निर्वस्त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है, लेकिन नग्न करना बहुत दूसरी बात है। नग्न तो कोई स्त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्वयं। अन्यथा नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्त्र छीने जा सकते हैं, लेकिन वस्त्र छीनना स्त्री को नग्न करना नहीं है। यह भी। और यह भी कि द्रौपदी जैसी स्त्री को नहीं पा सका दुर्योधन। उसके व्यंग्य तीखे पड़ गए उसके मन पर। बड़ा हारा हुआ है। हारे हुए व्यक्ति—जैसे कि क्रोध में आई हुई बिल्लियां खंभे नोचने लगती हैं—वैसा करने लगते हैं। और स्त्री के सामने जब भी पुरुष हारता है—और इससे बड़ी हार पुरुष को कभी नहीं होती। पुरुष पुरुष से लड ले, हार—जीत होती है। लेकिन पुरुष जब स्त्री से हारता है किसी भी क्षण में, तो इससे बड़ी कोई हार नहीं होती। तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्न करने का जितना आयोजन करके बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरुष—मन का है। और उस तरफ जो स्त्री खड़ी है हंसने वाली वह कोई साधारण स्त्री नहीं है। उसका भी अपना संकल्प है, अपना विल है। उसकी भी अपनी सामर्थ्य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। उसकी उस श्रद्धा में, वह जो कथा है, वह कथा तो काव्य है कि कृष्ण उसकी साड़ी को बढाए चले जाते हैं। लेकिन मतलब सिर्फ इतना है कि जिसके पास अपना संकल्प है, उसे परमात्मा का सारा संकल्प तत्काल उपलब्ध हो जाता है। तो अगर परमात्मा के हाथ उसे मिल जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं। तो मैंने कहा, और मैं फिर से कहता हूं, द्रौपदी नग्न की गई, लेकिन हुई नहीं। नग्न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार था, फल का अधिकार नहीं था। यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्म पड़े हैं शथ्या पर—बाणों की शथ्या पर—और कृष्य कहते हैं पांडवों को कि पूछ लो धर्म का राज! और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी पूरे महाभारत पर छाई है। वह हंसती है कि इनसे पूछते हैं धर्म का रहस्य! जब मैं नग्न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। उसका व्यंग्य गहरा. है। वह स्त्री बहुत असाधारण है। काश! हिंदुस्तान की स्त्रियों ने सीता को आदर्श न बनाकर द्रौपदी को आदर्श बनाया होता, तो हिंदुस्तान की स्त्री की शान और होती। लेकिन नहीं, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है। खो गई। एक तो पांच पतियों की पत्नी है, इसलिए मन को पीड़ा होती है। लेकिन एक पति की पत्नी होना भी कितना मुश्किल है, उसका पता नहीं है। और जो पांच पतियों को निभा सकी है, वह साधारण स्त्री नहीं है, असाधारण है, सुपर धमन है। सीता भी अतिमानवीय है, लेकिन टू धमन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, लेकिन सुपर धमन के अर्थों में। पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी ने प्रशंसा दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे भारत के इतिहास में डाक्टर राम मनोहर लोहिया को छोड्कर किसी आदमी ने द्रौपदी को सम्मान नहीं दिया है, हैरानी की बात है। मेरा तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पांच हजार साल के इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तैयार है। यह जो मैंने कहा, आदमी करता है कर्म फल की अति आकांक्षा से, कर्म भी नहीं हो पाता और फल की अति आकांक्षा से दुराशा और निराशा ही हाथ लगती है। कृष्ण ने यह बहुत बहुमूल्य सूत्र कहा है। इसे हृदय के बहुत कोने में सम्हालकर रख लेने जैसा है। करें कर्म, वह हाथ में है, अभी है, यहीं है। फल को छोडें। फल को छोडने का साहस दिखलाए। कर्म को करने का संकल्प, फल को छोड़ने का साहस, फिर कर्म निश्चित ही फल ले आता है। लेकिन आप उस फल को मत लाएं, वह तो कर्म के पीछे छाया की तरह चला आता है। और जिसने छोड़ा भरोसे से, उसके छोड़ने प्रे ही, उसके भरोसे में ही, जगत की सारी ऊर्जा सहयोगी हो जाती है। जैसे ही हम मांग करते हैं, ऐसा हो, वैसे ही हम जगत—ऊर्जा के विपरीत खड़े हो जाते हैं और शत्रु हो जाते हैं। जैसे ही हम कहते हैं, जो तेरी मर्जी; जो हमें करना था, वह हमने कर लिया, अब तेरी मर्जी पूरी हो, हम जगत—ऊर्जा के प्रति मैत्री से भर जाते हैं। और जगत और हमारे बीच, जीवन—ऊर्जा और हमारे बीच, परमात्मा और हमारे बीच एक हार्मनी, एक संगीत फलित हो जाता है। जैसे ही हमने कहा कि नहीं, किया भी मैंने, जो चाहता हूं वह हो भी, वैसे ही हम जगत के विपरीत खड़े हो गए हैं। और जगत के विपरीत खड़े होकर सिवाय निराशा के, असफलता के कभी कुछ हाथ नहीं लगता है। इसलिए कर्मयोगी के लिए कर्म ही अधिकार है। फल! फल परमात्मा का प्रसाद है।


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ओशो गीता दर्शन प्रवचन 16, भाग 1

 दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख की चाह जहा है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के फूल चाहिए, उसे दुख के काटो के लिए तैयार होना ही पड़ता है। इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पृहा नहीं है, सुख की जिसे आकांक्षा नहीं है।
 दुख को तो कोई भी नहीं चाहता है, दुख आता है। सुख को सभी चाहते हैं। इसलिए दुख को आने का एक ही रास्ता है, सुख की आडू में; और तो कोई रास्ता भी नहीं है। दुख को तो कोई बुलाता नहीं, निमंत्रण नहीं देता। दुख को तो कोई कहता नहीं कि आओ। दुख का अतिथि द्वार पर आए, तो कोई भी द्वार बंद कर लेता है। दुख का तो कोई स्वागत नहीं करता। फिर भी दुख आता तो है। तो दुख कहां से आता है?
 जैसे एक आदमी मछली मार रहा है नदी के किनारे बैठकर, तो कांटे में आटा लगा लेता है। आटे को लटका देता है पानी में। कोई मछली काटे को पकड़ने को न आएगी। कोई मछली क्यों कांटे को पकड़ेगी? लेकिन आटे को तो कोई भी मछली पकडना चाहती है। मछली सदा आटा ही पकड़ती है, लेकिन आटे के पकड़े जाने में मछली काटे में पकड़ी जाती है। आटा धोखा सिद्ध होता है, आवरण सिद्ध होता है, काटा भीतर का सत्य सिद्ध होता है।
 तो सुख सिर्फ दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो! तो फिर उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और दुख आ जाए, जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे हों और सूली आ जाए—वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है।
 सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। ही, प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भी बदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए मछली के मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता है, कांटे तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती।
 एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति एकदम से बंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे चले! इतने जोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये के सुख में चलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, इसलिए बंद हो जाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं चाहिए था, लोहे का फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की उत्तेजना में भी धड़कता रहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, तो सुख भी भारी पड़ जाता है।
 यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को नहीं मार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुख मिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दुख को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख के बाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहर निकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है।
 सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती, मिला कि आप ठप्प हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते हैं, वह तत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो जाएगी। क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख में द्वार है, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर पूरा मिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय नहीं रह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है।
 मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई है। उसकी पत्नी बहुत चिंतित और परेशान है, घबड़ा गई है। उस आदमी के हाथ में कभी सौ रुपये नहीं आए, इकट्ठे पांच लाख रुपये! पास में चर्च है। वह पादरी के पास गई है और उसने प्रार्थना की, पांच लाख की लाटरी मिल गई है, पति दफ्तर से लौटते होंगे। क्लर्क हैं, सौ रुपये से ज्यादा कभी देखे नहीं हैं हाथ में, पांच लाख! उन्हें किसी तरह इस सुख से बचाओ। कहीं कुछ हानि न हो जाए!
 पादरी बुद्धिमान था, आ गया, बैठ गया। पति घर लौटा। पादरी ने सोचा, पांच लाख इकट्ठा कहना ठीक नहीं, पचास हजार से शुरू करो। तो उसने पति को कहा कि सुना तुमने, पचास हजार लाटरी में मिले हैं! फिर आंखों की तरफ देखा कि इतना पचा जाए तो फिर और पचास हजार की बात करूं! लेकिन उस आदमी ने कहा, सच! अगर पचास हजार मुझे मिले हैं, यह सच है, तो पच्चीस हजार चर्च को दान देता हूं। पादरी का हार्ट—फेल हो गया। पच्चीस हजार! पांच पैसे कोई चर्च को देता नहीं था।
 सुख भी उत्तेजना है—प्रीतिकर। अपने आप में तो सिर्फ उत्तेजना है। हमारे मनोभाव में प्रीतिकर है, क्योंकि हमने उसे चाहा है। इसलिए एक और बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि सब सुख कनवर्टिबल हैं, दुख बन सकते हैं। और सब दुख सुख बन सकते हैं। कुल सवाल इतना है कि चाह है। चाह का फर्क हो जाना चाहिए। एक आदमी पहली दफा शराब पीता है, तो प्रीतिकर नहीं होता स्वाद। स्वाद तिक्त ही होता है, अप्रीतिकर ही होता है। इसलिए टेस्ट डेवलप करना होता है। शराब पीने वाले को स्वाद विकसित करना पड़ता है। फिर—फिर पीता है—मित्रों की शान में, लोगों की तारीफ में, कि मैं कोई कमजोर तो नहीं हूं —पीता है, अभ्यास हो जाता है। फिर वह तिक्त स्वाद भी प्रीतिकर लगने लगता है।
 सिगरेट कोई पहली दफा पीता है, तो खांसी ही आती है, तकलीफ ही होती है। फिर सिगरेट के साथ जुड़ी है अकड़, सिगरेट के साथ जुड़ा है अहंकार, सिगरेट के साथ शान के प्रतीक जुड़े हैं। उस शान के लिए आदमी उस दुख को झेलता है और अभ्यासी हो जाता है। फिर वह सिगरेट का गंदा स्वाद— धुएं में कोई और ‘ अच्छा स्वाद हो भी नहीं सकता—प्रीतिकर लगने लगता है, सुख हो जाता है। दुख का भी अभ्यास सुख बना सकता है। और सुख के अभ्यास से भी दुख निकल आता है।
 आए हैं आप मेरे पास, मैंने गले आपको लगा लिया, बहुत प्रीतिकर लगा है क्षणभर को। लेकिन मिनिट होने लगा, अब आप घबड़ा रहे हैं। दो मिनिट होने लगे, अब आप छूटना चाहते हैं। तीन मिनिट हो गए, अब आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट हो गए, अब आप घबड़ाते हैं कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं! पांच मिनिट हो गए, अब आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं!
 यह हुआ क्या? पहले क्षण में कह रहे थे, हृदय से मिलकर बड़ा आनंद मिला है। पांच मिनिट में आनंद खो गया! अगर मिला था, तो पांच मिनिट में हजार गुना हो जाना चाहिए था। जब एक सेकेंड में इतना मिला, तो दूसरे में और ज्यादा, तीसरे में और ज्यादा। नहीं, वह पहले सेकेंड में भी मिला नहीं था, सिर्फ सोचा गया था। दूसरे सेकेंड में समझ बढ़ी, तीसरे में समझ और बढ़ी—पाया कि कुछ भी नहीं है। जिन हाथों को हम हाथों में लेने को तरसते हैं, थोडी देर में सिवाय पसीने के उनसे कुछ भी नहीं निकलता है।
 सब सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं, सब दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और दुख कनवर्टिबल हैं, एक—दूसरे में बदल सकते हैं। इसलिए बहुत गहरे में दोनों एक ही हैं, दो नहीं हैं। क्योंकि बदलाहट उन्हीं में हो सकती है, जो एक ही हों। सिर्फ हमारे मनोभाव में फर्क पड़ता है, चीज वही है, उसमें कोई अंतर नहीं पडता है।
 यहां एक बात बहुत ठीक से ध्यान में ले लें, क्योंकि उसके ध्यान में न होने से सारे मुल्क में बड़ी नासमझी है। कृष्‍ण कह रहे हैं कि जिसमें क्रोध और भय न हों, वह समाधिस्थ है। वे यह नहीं कह रहे हैं कि जो क्रोध और भय को छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है—वे यह नहीं कह रहे हैं। वे यह कह रहे हैं, जो समाधिस्थ है, उसमें क्रोध और भय नहीं पाए जाते हैं। इन दोनों बातों में गहरा फर्क है। क्रोध और भय जो छोड़ दे, वह समाधिस्थ हो जाता है—ऐसा वे नहीं कह रहे हैं। जो समाधिस्थ हो जाता है, उसका क्रोध और भय छूट जाता है—ऐसा वे कह रहे हैं।
 आप कहेंगे, इसमें क्या फर्क पड़ता है? ये दोनों एक ही बात हैं। ये दोनों एक बात नहीं हैं। ये बहुत फासले पर हैं, विपरीत बातें हैं। जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और भय छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय को छोड़ने में ही लगा रहेगा, समाधि को कभी नहीं पा सकता। और जिस आदमी ने सोचा कि क्रोध और भय को छोड़ने से समाधि मिल जाती है, वह क्रोध और भय से लड़ेगा। और क्रोध से लड़कर आदमी क्रोध के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर आदमी भय के बाहर नहीं होता। भय से लड़कर आदमी और सूक्ष्म भयों में उतर जाता है। क्रोध से लड़कर आदमी और सूक्ष्म तलों पर क्रोधी हो जाता है।
 मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक आदमी की ख्याति हो गई कि उसने क्रोध पर विजय पा ली है। उसका एक मित्र उसके परीक्षण के लिए गया। सुबह थी, सर्दी थी अभी, लेकिन सूरज उग आया था। शायद साधु चार बजे रात से उठ आया होगा। आग जलाकर आग तापता था। फिर आग भी बुझ गई थी, फिर राख ही रह गई थी। अब भी साधु बैठा था। मित्र आया, उसने पास आकर नमस्कार किया और कहा कि थोड़ी—बहुत आग बची या नहीं? साधु ने कहा, नहीं, देखते नहीं, अंधे हो? कोई आग नहीं है, राख ही राख है। वह आदमी हंसा। उसने कहा कि नहीं बाबा जी, थोड़ी—बहुत तो बची ही होगी, राख के नीचे दबी होगी। साधु ने कहा, आदमी कैसे हो? मैं कहता हूं, नहीं है आग। उस आदमी ने कहा, जरा कुरेदकर तो देखें, शायद कहीं कोई चिनगारी पडी ही हो! साधु का हाथ अपने चिमटे पर चला गया। उसने कहा, तू आदमी है कि जानवर? मैं कहता हूं, नहीं है कोई आग। उस आदमी ने कहा, बाबा जी, अब तो चिनगारी ही नहीं, लपट बन गई है।
 वह जिस आग की बात कर रहा है, वह क्रोध है। वह जिस राख की बात कर रहा है, वह ऊपर का दमन है। एक छोटी—सी चर्चा, पता नहीं उस राख में आग थी या नहीं, लेकिन साधु में काफी आग थी, वह निकल आई। जरा—सी चोट और वह निकल आई। उस आदमी ने कहा, मैंने भी यही सुना था कि राख ही राख बची है, आग नहीं बची है। यही देखने आया था। लेकिन आग काफी बची है। राख ऊपर का ही धोखा है, भीतर आग है।
 क्रोध से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा क्रोध को भीतर दबाने में समर्थ हो सकता है। भय से जो लड़ेगा, वह ज्यादा से ज्यादा निर्भय होने में समर्थ हो सकता है, अभय होने में नहीं। निर्भय का इतना ही मतलब है कि भय को भीतर दबा दिया है। भय आता भी है तो कोई फिक्र नहीं, हम डटे ही रहते हैं। अभय का मतलब बहुत और है। अभय का मतलब है, भय का अभाव। निर्भय का अर्थ, भय के बावजूद भी डटे रहने की हिम्मत। अभय का मतलब, फियरलेसनेस। निर्भय का मतलब, ब्रेवरी। बड़े से बडा बहादुर आदमी भी भयभीत होता है, अभय नहीं होता। अभय होने का मतलब, भय है ही नहीं, निर्भय होने का भी उपाय नहीं है। भय बचा ही नहीं है।
 लेकिन हम आमतौर से उलटा कर लेते हैं। हम कह सकते हैं कि एक आदमी का शरीर अगर गरम न हो, तो उस आदमी को बुखार नहीं है। ठीक, इसमें कोई अड़चन नहीं मालूम पड़ती है। एक आदमी का शरीर गरम न हो, तो उसे बुखार नहीं है। लेकिन एक आदमी का शरीर गरम हो, तो उसके शरीर को ठंडा करने से बुखार नहीं जाता; पानी डालने से बुखार नहीं जाता। बुखार अगर पानी डालकर मिटाने की कोशिश की, तो बीमारी के जाने की उम्मीद कम, बीमार के जाने की उम्मीद ज्यादा है।
 नहीं, शरीर पर बुखार जब देखता है चिकित्सक, टेंपरेचर देखता है, तो यह जानने के लिए देखता है कि बीमारी कितनी है भीतर, जिससे इतना उत्ताप बाहर है। उत्ताप सिर्फ लक्षण है। उत्ताप बीमारी नहीं है। शरीर कहीं भीतर गहन संघर्ष में पड़ा है, उस संघर्ष के कारण उत्तप्त हो गया है। शरीर के सेल, शरीर के कोष्ठ कहीं लड रहे हैं भीतर दुश्मनों की तरह। कहीं भीतर कोई लड़ाई जारी है। कोई कीटाणु भीतर घुस गए हैं, जो शरीर के कीटाणुओं से लड़ रहे हैं। शरीर के रक्षक और शरीर के शत्रुओं के बीच कहीं गहरा संघर्ष है। उस संघर्ष की वजह से सारा शरीर उत्तप्त हो गया है। उत्तप्त होना सिर्फ लक्षणा है, सिम्पटम है, बीमारी नहीं है। और अगर गरम होने को ही कोई बीमारी समझ ले, तो ठंडा करना इलाज है। तो पानी डालें। बुखार तो नहीं, बीमार चला जाएगा।
 कृष्ण जब कह रहे हैं कि भय नहीं रह जाता, क्रोध नहीं रह जाता, तो समझना कि क्रोध और भय टेंपरेचर हैं। जो बीमार आदमी के, डिजीज्‍ड माइंड के, भीतर जिसका मन आपस में लड़ रहा है, कलह से भरा है—कलहग्रस्त मन में क्रोध का बुखार होता है। कलहग्रस्त मन में कमजोरी आ जाती है। स्वयं से लड़कर आदमी टूट जाता है, अपनी शक्ति को खोता है और इसलिए भयभीत हो जाता है। क्रोध और भय, स्वयं जब आदमी मन में संघर्ष में पड़ा होता है, तब लक्षणाएं हैं। वे खबर देती हैं कि आदमी भीतर बीमार है, चित्त रुग्ण है। बस, इतनी ही खबर। और जब क्रोध और भय नहीं होते, तब खबर मिलती है कि भीतर चित्त स्वस्थ है। चित्त का स्वास्थ्य समाधि है, अंतर—स्वास्थ्य समाधि है।
 इस भेद को इसलिए आपसे कहना चाहा कि आप क्रोध और भय से मत लड़ने लग जाना। क्रोध और भय को देखना, जानना, पहचानना। उनकी पहचान से पता चलेगा कि भीतर समाधि नहीं है। फिर समाधि लाने के उपाय अलग ही हैं। समाधि लाने के उपाय करना। समाधि आ जाएगी, तो क्रोध और भय चले जाएंगे। टेंपरेचर कहेगा कि नहीं, थर्मामीटर बताएगा कि नहीं। जब क्रोध और भय मालूम न पड़े, तब समझना कि समाधि फलित हुई है।
 मैंने गुरजिएफ का नाम बीच में लिया था। और मैंने कहा कि गुरजिएफ के कोई पास आता, तो वह शराब पिलाता। वह न केवल शराब पिलाता, बल्कि जब कोई आदमी साधना के लिए उसके पास आता, तो वह अजीब— अजीब तरह के टेंपटेशन पैदा करता। वह अजीब सिचुएशस, स्थितियां पैदा करता। वह एक आदमी को इस हालत में ला देता कि उसको पता ही न चले कि उसको क्रोध दिलाया जा रहा है, उसका पूरा क्रोध कावा देता। वह ऐसी हालत पैदा कर देता कि वह आदमी बिलकुल पागल होकर क्रुद्ध हो जाए। और जब वह पूरे क्रोध में आ जाता, तब वह उस आदमी को कहता कि जरा जागकर देख कि कितना क्रोध है तेरे भीतर! जब तू आया था तब इतना क्रोध नहीं था। लेकिन तू यह मत समझना कि यह क्रोध अभी आ गया है। यह था तब भी, लेकिन भीतर दबा था, अब प्रकट हुआ है। इसे पहचान ले, क्योंकि यही लक्षण है।
 हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कितना दबा है। आमतौर से हम समझते हैं कि कभी—कभी कोई हमें क्रोधित करवा देता है। यह बड़ी झूठी समझ है। कोई दुनिया में किसी को क्रोधित नहीं करवा सकता, जब तक कि भीतर क्रोध मौजूद न हो। दूसरे लोग तो केवल निमित्त बन सकते हैं, खूंटियां बन सकते हैं, कोट आपका ही याता है, कोट खूंटी का नहीं होता। आपके पास कोट होता है, तो आप टांग देते हैं। आप यह नहीं कह सकते कि इस खूंटी ने कोट टंगवा लिया। कोट तो था ही—चाहे हाथ पर टांगते, चाहे सांकल पर टांगते, चाहे खीली पर टांगते, चाहे कंधे पर टांगते—कही न कहीं टांगते। कोट तो था ही आपके पास, खूंटी ने सिर्फ रास्ता दिया, आपका कोट टांग लिया। खूंटी जिम्मेवार नहीं है, जिम्मेवार आप ही हैं। खूंटी सिर्फ निमित्त है।
 जैसे एक कुएं में हम बालटी डालते हैं। फिर बालटी में पानी भरकर आ जाता है। लेकिन कुएं में पानी तो होना चाहिए न! बालटी खाली कुएं से पानी नहीं ला सकती, सूखे कुएं से पानी नहीं ला सकती। खड़खड़ाकर लौट आएगी। कह देगी, नहीं है। दूसरे आदमी की गाली ज्यादा से ज्यादा बालटी बन सकती है मेरे भीतर। लेकिन क्रोध वहां होना चाहिए, तब उस बालटी में भरकर बाहर आ जाएगा।
 तो कृष्‍ण की इस बात से यह मत समझ लेना कि क्रोध को दबा लिया, भय को दबा लिया, तो निश्चित हो गए, समाधिस्थ हो गए, स्थितधी हो गए! इतना सस्ता मामला नहीं है। दबाने की बजाय क्रोध को उभारकर ही देखना। और जब कोई गाली दे, तो अपने भीतर देखना, कितना उभरता है! और जब कोई गाली दे, तो उसे धन्यवाद देना कि तेरी बड़ी कृपा! तू अगर बालटी न लाता, तो अपने कुएं की खबर ही न मिलती। ऐसा कभी—कभी बालटी ले आना।
 कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। साधुओं से कबीर ने कहा है कि साधुओ! अपने निंदक को आंगन—कुटी छवाकर अपने पड़ोस में ही बसा लो, कि जैसे ही तुम बाहर निकलो, वह बालटी डाल दे और तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, वह तुम्हें दिखाई पड़ जाए। क्योंकि उसे तुम देख लो, उसे तुम पहचान लो, तो तुम्हें अपनी असली स्थिति का बोध हो। और जिसे अपनी असली स्थिति का बोध नहीं है, वह अपनी परम स्थिति को कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। जो अपनी वास्तविक, यथार्थ स्थिति को जानता है आज के क्षण में, वह अपनी परम स्थिति को, परम स्वभाव को भी उपलब्ध करने की यात्रा पर निकल सकता है।
 क्रोध और भय इंगित हैं, सूचक हैं, सिंबालिक हैं, सिंप्टमैटिक हैं। उनसे डायग्नोसिस कर लेना। उनसे अपना निदान कर लेना कि ये हैं, तो मेरे भीतर समाधि नहीं है। लेकिन इनको दबाकर मत सोच लेना कि इनको दबाने से समाधि हो जाती है। नहीं, समाधि आएगी तो ये नहीं हो जाएंगे। इनके दबाने से समाधि फलित नहीं होगी। इसलिए कृष्ण ने बहुत ठीक सूत्र कहे, दुख उद्विग्न न करे, सुख की आकांक्षा न हो, क्रोध उत्तप्त न करे, भय कंपाए नहीं, तो जानना अर्जुन कि ऐसा व्यक्ति समाधिस्थ है।


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