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गुरुवार, 29 मार्च 2018

ओशो : गीता-दर्शन प्रवचन 13

*ओशो :*  राग और द्वेष से मुक्त, द्वंद्व से रहित और शून्य। राग और द्वेष से मुक्त, दो में से एक पर होना सदा आसान है। राग में होना आसान है, विराग में भी होना आसान है। विराग द्वेष है। धन को पकडना आसान है, धन को त्यागना आसान है। पकड़ना राग है, त्यागना द्वेष है। राग और द्वेष दोनों से मुक्त हो जाओ, शून्य हो जाओ, रिक्त हो जाओ, तो जिसे महावीर ने वीतरागता कहा है, उसे उपलब्ध होता है व्यक्ति।
 द्वंद्व में चुनाव आसान है, चुनावरहित होना कठिन है। च्वाइस आसान है, च्वाइसलेसनेस कठिन है। कहें मन को कि इसे चुनते हैं, तो मन कहता है—ठीक। कहें मन को, इसके विपरीत चुनते हैं, तो भी मन कहता है—ठीक। चुनो जरूर! क्योंकि जहा तक चुनाव है, वहा तक मन जी सकता है। चुनाव कोई भी हो, इससे फर्क नहीं पड़ता—घर चुनो, जंगल चुनो, मित्रता चुनो, शत्रुता चुनो, धन चुनो, धन—विरोध चुनो, कुछ भी चुनो, प्रेम चुनो, घृणा चुनो, क्रोध चुनो, क्षमा चुनो, कुछ भी चुनो—च्वाइस हो, तो मन जीता है। लेकिन कुछ भी मत चुनो, तो मन तत्काल—तत्काल—गिर जाता है। मन के आधार गिर जाते हैं। च्वाइस मन का आधार है, चुनाव मन का प्राण है।
 इसलिए जब तक चुनाव चलता है जीवन में, तब तक आप कितना ही चुनाव बदलते रहें, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। संसार छोड़े, मोक्ष चुनें, पदार्थ छोड़े, परमात्मा चुनें; पाप छोड़े, पुण्य चुनें—कुछ भी चुनें। यह सवाल नहीं है कि आप क्या चुनते हैं, सवाल गहरे में यह है कि क्या आप चुनते हैं? अगर चुनते हैं, अगर च्वाइस है, तो द्वंद्व रहेगा। क्योंकि किसी को छोड़ते हैं और किसी को चुनते हैं।
 यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसे छोड़ते हैं, उसे पूरा कभी नहीं छोड़ पा सकते हैं। क्योंकि जिसे छोड़ना पड़ता है, उसकी मन में गहरी पकड़ होती है। नहीं तो छोड़ना क्यों पड़ेगा? अगर एक आदमी के मन में धन की कोई पकड़ न हो, तो वह धन का त्याग कैसे करेगा? त्याग के लिए पकड़ अनिवार्य है। अगर एक आदमी की कामवासना में, सेक्स में रुचि न हो, लगाव न हो, आकर्षण न हो, तो वह ब्रह्मचर्य कैसे चुनेगा? और जिसमें आकर्षण है, लगाव है, उसके खिलाफ हम चुन रहे हैं, तो ज्यादा से ज्यादा हम दमन कर सकते हैं, सप्रेशन कर सकते हैं। और कुछ होने वाला नहीं है; दब जाएगा। जिसे हमने इनकार किया, वह हमारे अचेतन में उतर जाएगा। और जिसे हमने स्वीकार किया, वह हमारा चेतन बन जाएगा।
 हमारा मन, जिसे अस्वीकार करता है, उसे अंधेरे में ढकेल देता है। हमारे सबके मन के गोडाउन हैं। घर में जो चीज बेकार हो जाती है, उसे हम कबाड़खाने मे डाल देते हैं। ऐसे ही चेतन मन जिसे इनकार कर देता है, उसे अचेतन में डाल देता है। जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे चेतन में ले आता है। चेतन मन हमारा बैठकखाना है। लेकिन किसी भी आदमी का घर बैठकखाने में नहीं होता। बैठकखानों में सिर्फ मेहमानों का स्वागत किया जाता है, उसमें कोई रहता नहीं। असली घर बैठकखाने के बाद शुरू होता है। बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है, तो भी चलेगा। कह सकते हैं कि बैठकखाना घर का हिस्सा नहीं है। क्योंकि घर वाले बैठकखाने में नहीं रहते, बैठकखाने में सिर्फ अतिथियों का स्वागत होता है। बैठकखाना सिर्फ फेस है, बैठकखाना सिर्फ एक चेहरा है, दिखावा है घर का, असली घर नहीं है। बैठकखाना एक डिसेप्शन है, एक धोखा है, जिसमें बाहर से आए लोगों को धोखा दिया जाता है कि यह है हमारा घर। हालांकि उसमें कोई रहता नहीं, न उसमें कोई सोता, न उसमें कोई खाता, न उसमें कोई पीता। उसमें कोई नहीं रहता, वह घर है ही नहीं। वह सिर्फ घर का धोखा है। बैठकखाने के बाद घर शुरू होता है।
 चेतन मन हमारा, जगत के दिखावे के लिए बैठकखाना है। उससे हम दूसरों से मिलते —जुलते हैं। लेकिन उसके गहरे में हमारा असली जीवन शुरू होता है। जब भी हम चुनाव करते हैं, तो चुनाव से कोई चीज मिटती नहीं। चुनाव से सिर्फ बैठकखाने की चीजें घर के भीतर चली जाती हैं। चुनाव से, सिर्फ जिसे हम चुनते हैं, उसे बैठकखाने में लगा देते हैं। वह हमारा डेकोरेशन है।
 इसलिए दिनभर जो आदमी धन को इनकार करता है, कहता है कि नहीं, मैं त्याग को चुना हूं रात सपने में धन को इकट्ठा करता है। जो दिनभर कामवासना से लड़ता है, रात सपने में कामवासना से घिर जाता है। जो दिनभर उपवास करता है, रात राजमहलों में निमंत्रित हो जाता है भोजन के लिए।
 सपने में एसर्ट करता है वह जो भीतर छिपा है। वह कहता है, बहुत हो गया दिनभर अब चुनाव, अब हम प्रतीक्षा कर रहे हैं दिनभर से भीतर, अब हमसे भी मिलो। वह जाता नहीं है, वह सिर्फ दबा रहता है।
 और एक मजे की बात है कि जो भीतर दबा है, वह शक्ति—संपन्न होता जाता है। और जो बैठकखाने में है, वह धीरे— धीरे निर्बल होता जाता है। और जल्दी ही वह वक्त आ जाता है कि जिसे हमने दबाया है, वह अपनी उदघोषणा करता है; विस्फोट होता है। वह निकल पड़ता है बाहर।
 अच्छे से अच्छे आदमी को, जिसकी जिंदगी बिलकुल बढ़िया, सुंदर, स्मूथ, समतल भूमि पर चलती है, उसे भी शराब पिला दें, तो पता चलेगा, उसके भीतर क्या—क्या छिपा है! सब निकलने लगेगा। शराब किसी आदमी में कुछ पैदा नहीं करती। शराब सिर्फ बैठकखाने और घर का फासला तोड़ देती है, दरवाजा खोल देती है।
 अभी पश्चिम में एक फकीर था गुरजिएफ। उसके पास जो भी साधक आता, तो पंद्रह दिन तो उसको शराब में डुबाता। कैसा पागल आदमी होगा? नहीं, समझदार था। क्योंकि वह यह कहता है कि जब तक मैं उसे न देख लूं, जिसे तुमने दबाया है, तब तक मैं तुम्हारे साथ कुछ भी काम नहीं कर सकता। क्योंकि तुम क्या कह रहे हो, वह भरोसे का नहीं है। तुम्हारे भीतर क्या पड़ा है, वही जान लेना जरूरी है।
 तो एकदम शराब पिलाता पंद्रह दिन, इतना डुबा देता शराब में। फिर उस आदमी का असली चेहरा खोजता कि भीतर कौन—कौन छिपा है, किस—किस को दबाया है! तुम्हारी च्वाइस ने क्या —क्या किया है, इसे जानना जरूरी है, तभी रूपांतरण हो सकता है।
 कई लोग तो भाग जाते कि हम यह बरदाश्त नहीं कर सकते। लेकिन गुरजिएफ कहता कि पंद्रह दिन तो जब तक मैं तुम्हें शराब में न डुबा लूं, जब तक मैं तुम्हारे भीतरी घर में न झांक लूं कि तुमने क्या—क्या दबा रखा है, तब तक मैं तुमसे बात भी नहीं करूंगा। क्योंकि तुम जो कहते हो, उसको सुनकर अगर मैं तुम्हारे साथ मेहनत करूं, तो मेहनत व्यर्थ चली जाएगी। क्योंकि तुम जो कहते हो, पक्का नहीं है कि तुम वही हो, भीतर तुम कुछ और हो सकते हो। और अंतिम निष्कर्ष पर, तुम्हारे जो भीतर पड़ा है, वही निर्णायक है।
 इसलिए कृष्ण कहते हैं, चुनना मत। क्योंकि चुनाव किया कि भीतर गया वह; जिसे तुमने छोड़ा, दबाया, वह अंदर गया। और जिसे तुमने उभारा और स्वीकारा, वह ऊपर आया। बस, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। द्वंद्व बना ही रहेगा। और द्वंद्व क्या है? कांफ्लिक्ट क्या है?
 द्वद्व एक, का द्वंद्व। आपने कसम ली है, क्रोध नहीं करेंगे। कसम आपकी चेतन मन में, कांशस माइंड में रहेगी। और क्रोध की ताकतें अचेतन मन में रहेंगी। कल कोई गाली देगा, अचेतन मन कहेगा, करो क्रोध! और चेतन मन कहेगा, कसम खाई है कि क्रोध नहीं करना है। और द्वंद्व खड़ा होगा। लड़ोगे भीतर।
 और ध्यान रहे, जब भी लड़ाई होगी, तो अचेतन जीतेगा। इमरजेंसी में हमेशा अचेतन जीतेगा। बेकाम समय में चेतन जीतता हुआ दिखाई पड़ेगा, काम के समय में अचेतन जीतेगा। क्यों? क्योंकि मनोविज्ञान की अधिकतम खोजें इस नतीजे पर पहुंची हैं कि चेतन मन हमारे मन का एक हिस्सा है। अगर हम मन के दस हिस्से करें, तो एक हिस्सा चेतन और नौ हिस्सा अचेतन है। नौगुनी ताकत है उसकी।
 तो वह जो नौगुनी ताकत वाला मन है, वह प्रतीक्षा करता है कि कोई हर्जा नहीं। सुबह जब गीता का पाठ करते हो तब कोई फिक्र नहीं, कसम खाओ कि क्रोध नहीं करेंगे। मंदिर जब जाते हो, तब कोई फिक्र नहीं, मंदिर कोई जिंदगी है! कहो कि क्रोध नहीं करेंगे। देख लेंगे दुकान पर! देख लेंगे घर में! जब मौका आएगा असली, तब एकदम चेतन हट जाता है और अचेतन हमला बोल देता है। इसीलिए तो हम कहते हैं, क्रोध करने के बाद आदमी कहता है कि पता नहीं कैसे मैंने क्रोध कर लिया! मेरे बावजूद—इंस्पाइट आफ मी—मेरे बावजूद क्रोध हो गया। लेकिन आपके बावजूद क्रोध कैसे हो सकता है? निश्चित ही, आपने अपने ही किसी गहरे हिस्से को इतना दबाया है कि उसको आप दूसरा समझने लगे हैं, कि वह और है। वह हमला बोल देता है। जब वक्त आता है, वह हमला बोल देता है।
 यह जो द्वंद्व है, यह जो काफ्लिक्ट है, यही मनुष्य का नरक है। द्वंद्व नरक है। कांफ्लिक्ट के अतिरिक्त और कोई नरक नहीं है। और हम इसको बढ़ाए चले जाते हैं। जितना हम चुनते जाते हैं, बढ़ाए चले जाते हैं।
 तो कृष्ण इस सूत्र में कहते हैं, राग और द्वेष से—द्वंद्व से, कांफ्लिक्ट से—जो बाहर हो जाता है, जो चुनाव के बाहर हो जाता है, वही जीवन के परम सत्य को जान पाता है। और जो द्वंद्व के भीतर घिरा रहता है, वह सिर्फ जीवन के नरक को ही जान पाता है। इस द्वंद्व— अतीत वीतरागता में ही निष्काम कर्म का फूल खिल सकता है। या निष्काम कर्म की भूमिका हो, तो यह द्वंद्वरहित, राग—द्वेषरहित, यह शून्य—चेतना फलित हो सकती है।
 चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है। यह शून्य का कृष्ण का कहना! चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है, जब शुद्ध होती है, तब शून्य ही होती है।
 करीब—करीब ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण कब शुद्धतम होता है? जब दर्पण में कुछ भी नहीं प्रतिफलित होता, जब दर्पण में कोई तस्वीर नहीं बनती। जब तक दर्पण में तस्वीर बनती है, तब तक कुछ फारेन, कुछ विजातीय दर्पण पर छाया रहता है। जब तक दर्पण पर कोई तस्वीर बनती है, तब तक दर्पण सिर्फ दर्पण नहीं होता, कुछ और भी होता है। एक तस्वीर निकलती है, दूसरी बन जाती है। दूसरी निकलती है, तीसरी बन जाती है। दर्पण पर कुछ बहता रहता है। लेकिन जब कोई तस्वीर नहीं बनती, जब दर्पण सिर्फ दर्पण ही होता है, तब शून्य होता है।
 चेतना सिर्फ दर्पण है। जब तक उस पर कोई तस्वीर बनती रहती है—कभी राग की, कभी विराग की, कभी मित्रता की, कभी शत्रुता की, कभी बाएं की, कभी दाएं की—कोई न कोई तस्वीर बनती रहती है, तो चेतना अशुद्ध होती है। लेकिन अगर कोई तस्वीर नहीं बनती, चेतना द्वंद्व के बाहर, चुनाव के बाहर होती है, तो शून्य हो जाती है। शून्य चेतना में क्या बनता है? जब दर्पण शून्य होता है, तब दर्पण ही रह जाता है। जब चेतना शून्य होती है, तो सिर्फ चैतन्य ही रह जाती है।
 वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति है, वही ब्रह्म का अनुभव है। वह जो शुद्ध चैतन्य की अनुभूति है, वही मुक्ति का अनुभव है। शून्य और ब्रह्म, एक ही अनुभव के दो छोर हैं। इधर शून्य हुए, उधर ब्रह्म हुए। इधर दर्पण पर तस्वीरें बननी बंद हुईं कि उधर भीतर से ब्रह्म का उदय हुआ। ब्रह्म के दर्पण पर तस्वीरों का जमाव ही संसार है। हम असल में दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। हम तो कैमरे की फिल्म की तरह व्यवहार करते हैं। कैमरे की फिल्म प्रतिबिंब को ऐसा पकड़ लेती है कि छोड़ती ही नहीं। फिल्म मिट जाती है, तस्वीर ही हो जाती है। अगर हम कोई ऐसा कैमरा बना सकें, बना सकते हैं, जिसमें कि एक तस्वीर के ऊपर दूसरी और दूसरी के ऊपर तीसरी ली जा सके, एक फिल्म पर अगर हजार तस्वीरें, लाख तस्वीरें ली जा सकें, तो जो स्थिति उस फिल्म की होगी, वैसी स्थिति हमारे चित्त की है। तस्वीरों पर तस्वीरें, तस्वीरों पर तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। कनफ्यूजन के सिवाय कुछ नहीं शेष रहता। कोई शकल पहचान में भी नहीं आती है कि किसकी तस्वीर है। कुछ पता भी नहीं चलता कि क्या है। एक नाइटमेयरिश, एक दुख—स्वप्न जैसा चित्त हो जाता है।
 दर्पण तो फिर भी बेहतर है। एक तस्वीर बनती है, मिट जाती है, तब दूसरी बनती है। हमारा चित्त ऐसा दर्पण है, जो तस्वीरों को पकड़ता ही चला जाता है, इकट्ठा करता चला जाता है; तस्वीरें ही तस्वीरें रह जाती हैं।
 उर्दू के किसी कवि की एक पंक्ति है, जिसमें उसने कहा है कि मरने के बाद घर से बस कुछ तस्वीरें ही निकली हैं। मरने के बाद हमारे घर से भी कुछ तस्वीरों के सिवाय निकलने को कुछ और नहीं है। जिंदगीभर तस्वीरों के संग्रह के अतिरिक्त हमारा कोई और कृत्य नहीं है।
 कृष्ण कहते हैं, शून्य, निर्द्वंद्व चित्त। छोड़ो तस्वीरों को, जानो दर्पण को। मत करो चुनाव, क्योंकि चुनाव किया कि पकड़ा। पकड़ो ही मत, नो क्लिगिंग। रह जाओ वही, जो हो। उस शून्य क्षण में जो जाना जाता है, वही जीवन का परम सत्य है, परम ज्ञान है।
[22/03, 9:39 AM] ‪+91 82108 73075‬: *ओशो गीता दर्शन भाग 3*
*_ भगवान श्री, इस श्लोक में यह वार्त्तिक मिला, बहुत यथार्थ है। मगर एक मुश्किल पड़ जाती है कि त्रैगुण्यविषया वेदा। इसमें गीता सर्व वेद पर आक्षेप करती है कि वे त्रैगुण्य विषय से युक्त हैं! और दूसरा, उत्तरार्ध में निर्योगक्षेम आत्मवान, तो आत्मवान होना न होना एक आंतरिक भाव है, तो श्रीकृष्ण उसको योगक्षेम प्रवृत्ति की बाह्य घटना से क्यों जोड़ते हुए दिखते हैं? मात्र आत्मवान होने से योगक्षेम की समस्या हल हो सकेगी?_*
*ओशो :*  कृष्ण कहते हैं, समस्त वेद सगुण से, तीन गुणों से भरे हैं, निर्गुण नहीं हैं। शब्द निर्गुण नहीं हो सकता; वेद ही नहीं, कृष्ण का शब्द भी निर्गुण नहीं हो सकता। और जब वे कहते हैं समस्त वेद, तो उसका मतलब है समस्त शास्त्र, उसका मतलब है समस्त वचन, उसका मतलब है समस्त ज्ञान, जो कहा गया, वह कभी भी तीन गुणों के बाहर नहीं हो सकता। इसे ऐसा समझें कि जो भी अभिव्यक्त है, वह गुण के बाहर नहीं हो सकता। सिर्फ अव्यक्त, अनभिव्यक्त, अनमैनिफेस्टेड निर्गुण हो सकता है, व्यक्त तो सदा ही सगुण होगा। असल में व्यक्त होने के लिए गुण का सहारा लेना पड़ता है। व्यक्त होने के लिए गुण की रूपरेखा लेनी पड़ती है। व्यक्त होने के लिए गुण का माध्यम चुनना पड़ता है। जैसे ही कुछ व्यक्त होगा कि गुण की सीमा में प्रवेश कर जाएगा। वेद का अर्थ है, व्यक्त ज्ञान; वेद का अर्थ है, शब्द में सत्य। जब सत्य को शब्द में रखेंगे, तब सत्य की असीमता शेष न रह जाएगी, वह सीमित हो जाएगा। कितना ही बडा शब्द हो, तो भी सत्य को पूरा न घेर पाएगा, क्योंकि सत्य को पूरा घेरा नहीं जा सकता। कितनी ही बड़ी प्रतिमा हो, तो भी परमात्मा को पूरा न घेर पाएगी, क्योंकि परमात्मा को पूरा घेरा नहीं जा सकता। सब शब्द, सब व्यक्त सीमा बनाते हैं। गुणों की सीमा बनाते हैं। गुण से ही व्यक्त होगा। एक बीज में वृक्ष निर्गुण हो सकता है, निराकार हो सकता है। है, अभी कोई आकार नहीं है। लेकिन जब बीज फूटेगा और प्रकट होगा, तो वृक्ष आकार ले लेगा। तो जहां वे कह रहे हैं वेद के संबंध में, वह समस्त वक्तव्य के संबंध में कही गई बात है। उसमें गीता भी समाहित हो गई है। तो ऐसा नहीं है कि गीता वेद की कोई उपेक्षा कर रही है। वेद में भी ऐसे वचन हैं, जो कहेंगे, शब्द से उसे नहीं कहा जा सकता। समस्त शास्त्रों की गहरी से गहरी कठिनाई यही है कि शास्त्र उसी को कहने की चेष्टा में संलग्न हैं, जो नहीं कहा जा सकता है। शास्त्र उसी को बताने में संलग्न हैं, जिसे बताने के लिए कोई उपाय नहीं है। शास्त्र उसी दिशा में इंगित कर रहे हैं, जो अदिशा है, जो दिशा नहीं है, नो—डायमेंशन है। अगर मुझे वृक्ष बताना हो, तो मैं इशारा कर दूं कि वह रहा। अगर मुझे तारा बताना हो, तो बता दूं कि वह रहा। लेकिन अगर मुझे परमात्मा बताना हो, तो अंगुली से नहीं बताया जा सकता, मुट्ठी बांधकर बताना पड़ेगा और कहना पड़ेगा, यह रहा। क्योंकि अंगुली तो समव्हेयर, कहीं बताएगी; और जो एवरीव्हेयर है, उसे अंगुली से नहीं बताया जा सकता। अंगुली से बताने में भूल हो जाने वाली है, क्योंकि अंगुली तो कहीं इशारा करती है उसको, बाकी जगह भी तो वही है। नानक गए मक्का। सो गए रात। पुजारी बहुत नाराज हुए। नानक को पकड़ा और कहा कि बड़े छू मालूम पड़ते हो! पवित्र मंदिर की तरफ, परमात्मा की तरफ पैर करके सोते हो? तो नानक ने कहा कि मैं बड़ी मुसीबत में था; मैं भी बहुत सोचा, कोई उपाय नहीं मिला। तुम्हीं को मैं स्वतंत्रता देता हूं तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो। वे पुजारी मुश्किल में पड़े होंगे। पुजारी हमेशा नानक जैसे आदमी से मिल जाए, तो मुश्किल में पड़ता है। क्योंकि पुजारी को धर्म का कोई पता नहीं होता। पुजारी को धर्म का कोई पता ही नहीं होता। उसे मंदिर का पता होता है। मंदिर की सीमा है।मुश्किल में डाल दिया। वही सवाल है नानक का। नानक कहते हैं, मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां परमात्मा न हो, मैं राजी। कहां करें पैर? कहीं भी करेंगे, परमात्मा तो होगा। मंदिर नहीं होगा, काबा नहीं होगा, परमात्मा तो होगा। तो फिर काबा में जो परमात्मा है, वह उसी परमात्मा से समतुल नहीं हो सकता, जो सब जगह है। तो काबा का परमात्मा सगुण हो जाएगा। मंदिर का परमात्मा सगुण हो जाएगा। शब्द का परमात्मा सगुण हो जाएगा। शास्त्र का परमात्मा सगुण हो जाएगा। बोला, कहा, प्रकट हुआ कि सगुण हुआ। कृष्ण जो बोल रहे हैं, वह भी सगुण हो जाता है, बोलते ही सगुण हो जाता है। वेद की निंदा नहीं है वह, वेद की सीमा का निर्देश है। शब्द की निंदा नहीं है वह, शब्द की सीमा का निर्देश है। वचन की निंदा नहीं है वह, वचन की सीमा का निर्देश है। और वह निर्देश करना जरूरी है। लेकिन कितना ही निर्देश करो, आदमी बहरा है। अगर कृष्ण की बात सुन ले कि वेद में जो है, वह सब त्रिगुण के भीतर है, तो वह कहेगा, छोड़ो वेद को, गीता को पकड़ो। क्योंकि वेद में तो निर्गुण निराकार नहीं है, छोड़ो! छोटा हो गया वेद, गीता को पकड़ो। लेकिन समझ ही नहीं पाया वह। अगर कृष्ण कहीं देखते होंगे, तो वे हंसते होंगे कि तुमने फिर दूसरा वेद बना लिया। यह सवाल वेद का नहीं है, यह सवाल व्यक्त की सीमा का है। और दूसरी बात पूछी है कि अगर आत्मस्थिति को सीधा ही स्वीकार कर लिया जाए, तो उसे योगक्षेम से क्यों जोड़ते हैं? जोड़ते नहीं हैं, जुड़ी है। सिर्फ कहते हैं। जोड़ते नहीं हैं, जुड़ी है। जैसे एक दीया जले, तो दीया तो अपने में ही जलता है। अगर आस—पास कोई चीज न हो दिखाई पड़ने को, तो भी जलता है। दीए का जलना, दीए का प्रकाश से भरना, किन्हीं प्रकाशित चीजों पर निर्भर नहीं होता। लेकिन दीया जलता है, तो चीजें प्रकाशित होती हैं। जो भी आस—पास होगा, वह प्रकाशित होगा। और बड़े मजे की बात है कि आपने कभी भी प्रकाश नहीं देखा है अब तक, सिर्फ प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाश नहीं देखा है किसी ने भी आज तक, सिर्फ प्रकाशित चीजें देखी हैं। प्रकाशित चीजों की वजह से आप अनुमान करते हैं कि प्रकाश है। आप सोचेंगे कि मैं क्या बात कह रहा हूं! हम सब ने प्रकाश देखा है। फिर से सोचना, प्रकाश कभी किसी ने देखा ही नहीं। यह वृक्ष दिखता है सूरज की रोशनी में चमकता हुआ, इसलिए आप कहते हैं, सूरज की रोशनी है। फिर अंधेरा आ जाता है और वृक्ष नहीं दिखता है, आप कहते हैं, रोशनी गई। लेकिन आपने रोशनी नहीं देखी है। देखें आकाश की तरफ, चीजें दिखाई पड़ेगी, रोशनी कहीं दिखाई नहीं पड़ेगी। जहा भी है, जो भी दिखाई पड़ रहा है, वह प्रकाशित है, प्रकाश नहीं। कृष्ण के कहने का कारण है। वे कहते हैं, जब कोई शून्य आत्मस्थिति को उपलब्ध होता है, तो योगक्षेम फलित होते हैं। आपको योगक्षेम ही दिखाई पड़ेंगे। आपको आत्मस्थिति दिखाई नहीं पड़ेगी। उस आत्मस्थिति के पास जो घटना घटती है योगक्षेम की, वही दिखाई पड़ेगी। जब कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है, तो आपको उसके भीतर की स्थिति दिखाई नहीं पड़ेगी; उसके चारों तरफ सब आनंद से भर जाएगा, वही दिखाई पड़ेगा। जब कोई भीतर शान को उपलब्ध होता है, तो आपको उसके शान की स्थिति! दिखाई नहीं पड़ेगी, लेकिन उसके चारों तरफ ज्ञान की घटनाएं घटने लगेंगी, वही आपको दिखाई पड़ेगा। भीतर तो शुद्ध अस्तित्व ही रह जाएगा आत्मा का, लेकिन योगक्षेम उसके कांसिक्येंसेस होंगे। जैसे दीया जलेगा, और चीजें चमकने लगेंगी। चीजें न हों तो भी दीया जल सकता है, लेकिन तब आपको दिखाई नहीं पड़ सकता है। अर्जुन आत्मवान होगा, यह उसकी भीतरी घटना है। अर्जुन का आत्मवान होना, चारों तरफ योगक्षेम के फूल खिला देगा, यह उसकी बाहरी घटना है। इसलिए वे दोनों का स्मरण करते हैं। और हम कैसे पहचानेंगे जो बाहर खड़े हैं? वे आत्मवान को नहीं पहचानेंगे, योगक्षेम को पहचानेंगे। मोहम्मद के बाबत कहा जाता है कि मोहम्मद जहां भी चलते, तो उनके ऊपर आकाश में एक बदली चलती साथ, छाया करती हुई। कठिन मालूम पड़ती है बात। मोहम्मद जहां भी जाएं, तो उनके ऊपर एक बदली चले और छाया करे! लेकिन आदमी के पास शब्द कमजोर हैं, इसलिए जो चीज गद्य में नहीं कही जा सकती, उसे हम पद्य में कहते हैं। पद्य हमारे गद्य की असमर्थता है। जब प्रोज़ में नहीं कह पाते, तो पोएट्री निर्मित करते हैं। और जीवन में जो —जो गहरा है, वह गद्य में नहीं कहा जा सकता, इसलिए जीवन का सब गहरा पद्य में, पोएट्री में कहा जाता है। यह पोएटिक एक्सप्रेशन है किसी अनुभूति का, मोहम्मद जहां भी जाते, वहा छाया पहुंच जाती। मोहम्मद जहा भी जाते, वहा आस—पास के लोगों को ऐसा लगता जैसे रेगिस्तान, मरुस्थल के आदमी को लगेगा कि जैसे ऊपर कोई बादल आ गया हो और सब छाया हो गई हो। मोहम्मद जहा होते, वहां योगक्षेम फलित होता। महावीर के बाबत कहा गया है कि महावीर अगर रास्ते से चलते, तो काटे अगर सीधे पड़े होते, तो उलटे हो जाते। कोई कांटा फिक्र नहीं करेगा, संभावना कम दिखाई पड़ती है। लेकिन जिन्होंने यह लिखा है, उन्होंने कुछ अनुभव किया है। महावीर के आस—पास सीधे कांटे भी उलटे हो जाएं—कांटे नहीं, पर कांटापन। जिंदगी में बहुत काटे हैं, बहुत तरह के काटे हैं। रास्तों पर बहुत काटे हैं। और महावीर के पास जो लोग आए हों, उन्हें अचानक लगा हो कि अब तक जो कांटे सीधे चुभ रहे थे, वे एकदम उलटे हो गए, नहीं चुभ रहे हैं; योगक्षेम फलित हुआ हो, तो कविता कैसे कहे? आदमी कैसे कहे? आदमी कहता है कि ऐसा हो जाता है। लेकिन भूल होती है हमें। हमें तो यही दिखाई पड़ता है। हम महावीर को पहचानेंगे भी कैसे कि वे महावीर हैं न: हम कैसे पहचानेंगे कि बुद्ध बुद्ध हैं? तो बुद्ध के लिए हमने कहानियां गढ़ी हैं कि बुद्ध जिस गांव से निकलते हैं, वहा केशर की वर्षा हो जाती है। हो नहीं सकती, उस केशर की नहीं, जो बाजार में बिकती है। लेकिन जिन लोगों के गांव से बुद्ध गुजरे हैं, उनको जरूर केशर की सुगंध जैसा, केशर जैसा —उनके पास जो कीमती से कीमती शब्द रहा होगा—उसकी प्रतीति हुई, उसका एहसास हुआ है। कुछ बरसा है उस गांव में जरूर। और आदमी की भाषा में कोई और शब्द नहीं होगा, तो कहा है, केशर बरस गई है। जब भीतर जीवन प्रकाशित होता है, तो बाहर भी प्रकाश की किरणें लोगों को छूती हैं। वे जब लोगों को छूती हैं, तो योगक्षेम फलित होता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं और ठीक कहते हैं। कहना चाहिए। कहना जरूरी है। क्योंकि एक व्यक्ति के जीवन में भी जब आत्मा की घटना घटती है, तो उसके प्रकाश का वर्तुल दूर—दूर लोक—लोकातर तक फैल जाता है। और एक व्यक्ति के भीतर भी जो स्वर बजता है आत्मा का, तो उसकी स्वरलहरी दूसरों के प्राणों को भी झंकार से भर जाती है। और एक व्यक्ति के जीवन में जब आनंद फलित होता है, तो दूसरों के जीवन में भी आनंद के फूल थोड़े—से जरूर बरस जाते हैं। इसलिए अर्जुन को तो कहते हैं, तू आत्मवान हो जाएगा, शक्ति—संपन्न हो जाएगा। लेकिन जब शक्ति—संपन्न होगा कोई, भीतर आत्मवान होगा कोई, तो इसे एक और दूसरी तरफ से देखने की कोशिश करें। जब कोई व्यक्ति आत्महीन होता है, जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा को खो देता है, तो कभी आपने खयाल किया है कि उसके आस—पास दुख, पीड़ा का जन्म होना शुरू हो जाता है! जब कोई एक व्यक्ति अपनी आत्मा को खोता है, तो अपने आस—पास दुख का एक वर्तुल पैदा कर लेता है! निर्भर करेगा कि कितनी उसने आत्मा खोई है। अगर एक हिटलर जैसा आदमी पृथ्वी पर पैदा हो, तो विराट दुख का वर्तुल चारों ओर फलित होता है। योगक्षेम का पता ही नहीं चलता, सब खो जाता है। उससे उलटा घटित होने लगता है। अकल्याण और अमंगल चारों ओर फैल जाता है। फैलेगा। चंगेज खां जैसा आदमी पैदा होता है, तो जहां से गुजर जाता है, वहां केशर नहीं बरसती, सिर्फ खून! सिर्फ खून ही बहता है। बुरे आदमियों को हम भलीभांति पहचानते हैं। उनके आस — पास जो घटनाएं घटती हैं, उन्हें भी पहचानते हैं। स्वभावत:, बुरे आदमी के आस—पास जो घटना घटती है, वह बहुत मैटीरियल होती है, बहुत भौतिक होती है, दिखाई पड़ती है। चंगेज खां निकले आपके गाव से, तो मुश्किल है कि आप न देख पाएं। क्योंकि घटनाएं बहुत भौतिक, मैटीरियल घटेंगी। चंगेज खां जिस गाव से निकलता, उस गांव के सारे बच्चों को कटवा डालता। भालों पर बच्चों के सिर लगवा देता। और जब चंगेज खां से किसी ने पूछा कि तुम क्या कर रहे हो? दस—दस हजार बच्चे भालों पर लटके हैं! तो चंगेज खां ने हंसकर कहा कि लोगों को पता होना चाहिए कि चंगेज खां निकल रहा है। बुद्ध भी निकलते हैं किसी गाव से, कृष्ण भी निकलते हैं किसी गाव से, जीसस भी निकलते हैं किसी गांव से—घटनाएं इम्मैटीरियल घटती हैं, घटनाएं मैटीरियल नहीं होतीं। इसलिए जिनके पास थोड़ी संवेदनशील चेतना है, वे ही पकड़ पाते हैं। जिनके पास थोड़ा संवेदन से भरा हुआ मन है, जो रिस्पांसिव हैं, वे ही पकड़ पाते हैं। उसमें जो पकड़ में आता है, उसको कृष्ण कह रहे हैं योगक्षेम। वे जो पकड़ पाते हैं, उनको पता लगता है, सब बदल गया। हवा और हो गई, आकाश और हो गया, सब और हो गया। यह जो सब और हो जाने का अनुभव है, इस अनुभव को कृष्ण कह रहे हैं योगक्षेम। उसे स्मरण दिलाना उचित है। एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि वे कह रहे हैं, तू शक्ति—संपन्न हो जाएगा। असल में मनुष्य तब तक शक्ति—संपन्न होता ही नहीं, जब तक स्वयं होता है, तब तक वह शक्ति—विपन्न ही होता है। असल में स्वयं होना, अहंकार—केंद्रित होना, दीन होने की रामबाण व्यवस्था है। जितना मैं अहंकार से भरा हूं जितना मैं हूं, उतना ही मैं दीन हूं। जितना मेरा अहंकार छूटता और मैं आत्मवान होता हूं, जितना ही मैं मिटता, उतना ही मैं सर्व से एक होता हूं। तब शक्ति मेरी नहीं, ब्रह्म की हो जाती है। तब मेरे हाथ मुझसे नहीं चलते, ब्रह्म से चलते हैं। तब मेरी वाणी मुझसे नहीं बोलती, ब्रह्म से बोलती है। तब मेरा उठना—बैठना मेरा नहीं, उसका ही हो जाता है। स्वभावत:, उससे बड़ी और शक्ति—संपन्नता क्या होगी? जिस दिन व्यक्ति अपने को समर्पित कर देता सर्व के लिए, उस दिन सर्व की सारी शक्ति उसकी अपनी हो जाती है। उस दिन होता है वह शक्ति—संपन्न। शक्ति यहां पावर का प्रतीक नहीं है। शक्ति उन अर्थों में नहीं, जैसे किसी पद पर पहुंचकर कोई आदमी शक्तिशाली हो जाता है, कि कोई आदमी कल तक सड़क पर था, फिर मिनिस्टर हो गया, तो शक्तिशाली हो गया। यह शक्ति व्यक्ति में नहीं होती, यह शक्ति पद में होती है। इसको कुर्सी से नीचे उतारो, यह फिर विपन्न हो जाता है। यह शक्ति इसमें होती ही नहीं, यह इसके कुर्सी पर बैठने से होती है। कभी सर्कस में, कार्निवाल में आपने इलेक्ट्रिक चेयर देखी हो, कुर्सी जो इलेक्ट्रिफाइड होती है। उस पर एक लड़की या लड़के को बिठा रखते हैं। वह लड़का भी इलेक्ट्रिफाइड हो जाता है। फिर उस लड़के को छुए, तो शॉक लगता है। वह लड़के का शॉक नहीं है, कुर्सी का शॉक है। लड़के को कुर्सी से बाहर उतारें, गया। मोरारजी भाई कुर्सी पर और मोरारजी भाई कुर्सी के बाहर। इलेक्ट्रिफाइड चेयर! सर्कस है! मगर वह जो कुर्सी पर बैठा हुआ लड़का या लड़की है, जब आपको शॉक लगता है, तो उसकी शान देखें। वह समझता है कि शायद मैं शॉक मार रहा हूं। कुर्सी के शॉक हैं। लेकिन आइडेंटिफाइड हो जाता है आदमी। पावर नहीं मतलब है कृष्ण की शक्ति का। कृष्ण की शक्ति का मतलब है, एनर्जी, ऊर्जा, जो पद से नहीं आती। असल में जो पद—मात्र छोड़ने से आती है। अहंकार पद को खोजता है। जो अहंकार को ही छोड़ देता है, उसके सब पद खो जाते हैं। उसके पास कोई पद नहीं रह जाता वह शून्य हो जाता है। उस शून्य में विराट गूंजने लगता है। उस शून्य में विराट उतर आता है। उस शून्य में विराट के लिए द्वार मिल जाता है। तब वह एनर्जी है, पावर नहीं। तब वह ऊर्जा है, शक्ति है, उधार नहीं है। तब वह व्यक्ति मिटा और अव्यक्ति हो गया। तब व्यक्ति नहीं है, परमात्मा है। और ऐसी स्थिति से वापस लौटना नहीं होता।  ध्यान रखें, पावर से वापस लौटना होता है। पद से वापस लौटना होता है, धन से वापस लौटना होता है। जो शक्ति भी किसी कारण से मिलती है और अहंकार की खोज से मिलती है, उससे लौटना होता है। लेकिन जो शक्ति अहंकार को खोकर मिलती है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है, उससे वापस लौटना नहीं होता है। इसलिए एक बार व्यक्ति परमात्मा की शक्ति को जान लेता है, एक हो जाता है, वह सदा के लिए शक्ति—संपन्न हो जाता है। शायद यह कहना ठीक नहीं है कि शक्ति—संपन्न हो जाता है, उचित यही होगा कहना कि वह शक्ति—संपन्नता हो जाता है। शक्ति—संपन्न हो जाता है, तो ऐसा खयाल बनता है कि वह भी बचता है। नहीं, यह कहना ठीक नहीं है कि वह शक्ति—संपन्न हो जाता है, यही कहना ठीक है कि वह शक्ति हो जाता है। और ऐसी शक्ति अगर पद की है, धन की है, तो योगक्षेम फलित नहीं होंगे। ऐसी शक्ति अगर परमात्मा की है, तो योगक्षेम फलित होंगे। इसलिए भी योगक्षेम की बात कर लेनी उचित है। क्योंकि ऐसी शक्तियां भी हैं, जिनसे योगक्षेम से उलटा फलित होता है। पावर—पालिटिक्स है सारी दुनिया में। जब भी कोई आदमी पोलिटिकली पावरफुल होने की यात्रा करता है, तो योगक्षेम फलित नहीं होता है। उससे उलटा ही फलित होता है। अमंगल ही फलित होता है। दुख ही फलित होता है। तो शक्ति का यह स्मरण रहे, भेद खयाल में रहे, शक्ति का अर्थ पावर नहीं, एनर्जी। शक्ति का अर्थ अहंकार की खोज नहीं, अहंकार का विसर्जन। तो निश्चित ही योगक्षेम फलित होता है।



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