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मंगलवार, 11 जुलाई 2017

शिवलिंग-1 The Secret of Shivlig " आपको इसके अर्थ का ज्ञान नही



शिवलिंग को गुप्तांग की संज्ञा कैसे दी और अब हम  हिन्दू खुद शिवलिंग को शिव् भगवान का गुप्तांग समझने लगे हे और दूसरे हिन्दुओ को भी ये गलत जानकारी देने लगे हे।
प्रकृति से शिवलिंग का क्या संबंध है ..?
जाने शिवलिंग का वास्तविक अर्थ क्या है और कैसे इसका गलत अर्थ निकालकर हिन्दुओं को भ्रमित किया...??
कुछ लोग शिवलिंग की पूजा
की आलोचना करते हैं..।
छोटे छोटे बच्चों को बताते हैं कि हिन्दू लोग लिंग और योनी की पूजा करते हैं । मूर्खों को संस्कृत का ज्ञान नहीं होता है..और अपने छोटे'छोटे बच्चों को हिन्दुओं के प्रति नफ़रत पैदा करके उनको आतंकी बना देते हैं।संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है । इसे देववाणी भी कहा जाता है।

*लिंग*
लिंग का अर्थ संस्कृत में चिन्ह, प्रतीक होता है…
जबकी जनर्नेद्रीय को संस्कृत मे शिशिन कहा जाता है।

*शिवलिंग*
>शिवलिंग का अर्थ हुआ शिव का प्रतीक….

 
>पुरुषलिंग का अर्थ हुआ पुरुष का प्रतीक इसी प्रकार स्त्रीलिंग का अर्थ हुआ स्त्री का प्रतीक और नपुंसकलिंग का अर्थ हुआ नपुंसक का प्रतीक। अब यदि जो लोग पुरुष लिंग को मनुष्य की जनेन्द्रिय समझ कर आलोचना करते है..तो वे बताये ”स्त्री लिंग ”’के अर्थ के अनुसार स्त्री का लिंग होना चाहिए ।

*शिवलिंग”’क्या है ?*
शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है । स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है।शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है और ना ही शुरुआत।

शिवलिंग का अर्थ लिंग या योनी नहीं होता ।

..दरअसल यह गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और मलेच्छों यवनों  के द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने पर तथा बाद में षडयंत्रकारी अंग्रेजों के द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ है ।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं ।

उदाहरण के लिए


यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो
सूत्र का मतलब डोरी/धागा गणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है। जैसे कि नासदीय सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि ।
उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ : सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी ।


ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है । धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है।तथा कई अन्य नामों से भी संबोधित किया गया है। जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam)
ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे हैं: ऊर्जा और प्रदार्थ। हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है।
इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं।
ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा ऊर्जा शिवलिंग में निहित है। वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है.
The universe is a sign of Shiva Lingam
शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी है। अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान हैं।
*अब बात करते है योनि शब्द पर-*

मनुष्ययोनि ”पशुयोनी”पेड़-पौधों की योनी’जीव-जंतु योनि
योनि का संस्कृत में प्रादुर्भाव ,प्रकटीकरण अर्थ होता है....जीव अपने कर्म के अनुसार विभिन्न योनियों में जन्म लेता है। किन्तु कुछ धर्मों में पुर्जन्म की मान्यता नहीं है नासमझ बेचारे। इसीलिए योनि शब्द के संस्कृत अर्थ को नहीं जानते हैं। जबकी हिंदू धर्म मे 84 लाख योनि बताई जाती है।यानी 84 लाख प्रकार के जन्म हैं। अब तो वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि धरती में 84 लाख प्रकार के जीव (पेड़, कीट,जानवर,मनुष्य आदि) है।

*मनुष्य योनि*

पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है।अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है। तो कुल मिलकर अर्थ यह है:-
लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक ।
दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई, बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं | हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है। इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया। ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके | लेकिन कुछ विकृत मुग़ल काल व गंदी मानसिकता बाले गोरे अंग्रेजों के गंदे दिमागों ने इस में गुप्तांगो की कल्पना कर ली और झूठी कुत्सित कहानियां बना ली और इसके पीछे के रहस्य की जानकारी न होने के कारण अनभिज्ञ भोले हिन्दुओं को भ्रमित किया गया |
आज भी बहुतायत हिन्दू इस दिव्य ज्ञान से अनभिज्ञ है।
हिन्दू सनातन धर्म व उसके त्यौहार विज्ञान पर आधारित है।जोकि हमारे पूर्वजों ,संतों ,ऋषियों-मुनियों तपस्वीयों की देन है।आज विज्ञान भी हमारी हिन्दू संस्कृति की अदभुत हिन्दू संस्कृति व इसके रहस्यों को सराहनीय दृष्टि से देखता है व उसके ऊपर रिसर्च कर रहा है।

जिस व्यक्ति को संभोग का कोई अनुभव नहीं होता, वह अक्सर समाधि की तलाश में निकल जाता है। वह अक्सर सोचता है कि संभोग से कुछ
नहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन उसके पास झलक भी नहीं है,
जिससे वह समाधि की यात्रा पर निकल सके।स्त्री-पुरुष का मिलन एक गहरा मिलन है। और जो व्यक्ति उस छोटे से मिलन को भी उपलब्ध नहीं होता, वह स्वयं के और अस्तित्व के मिलन को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। स्वयं का और अस्तित्व का मिलन तो और बड़ा मिलन है, विराट मिलन है। यह तो बहुत छोटा सा मिलन है। लेकिन इस छोटे मिलन में भी अखंडता घटित होती हैछोटी मात्रा में। एक और विराट मिलन है, जहां अखंडता घटित होती हैस्वयं के और सर्व के मिलन से। वह एक बड़ा संभोग है, और शाश्वत संभोग है।यह मिलन अगर घटित होता है, तो उस क्षण में व्यक्ति निर्दोष हो जाता है। मस्तिष्क खो जाता है; सोच-विचार विलीन हो जाता है; सिर्फ होना,


मात्र होना रह जाता है, जस्ट बीइंग। सांस चलती है, हृदय धड़कता है,
होश होता है; लेकिन कोई विचार नहीं होता। संभोग में एक क्षण को व्यक्ति निर्दोष हो जाता है।अगर आपके भीतर की स्त्री और पुरुष के मिलने की कला आपको जाए, तो फिर बाहर की स्त्री से मिलने की जरूरत नहीं है। लेकिन बाहर की स्त्री से मिलना बहुत आसान, सस्ता; भीतर की स्त्री से मिलना बहुत कठिन और दुरूह। बाहर की स्त्री से मिलने का नाम भोग; भीतर की स्त्री से मिलने का नाम योग। वह भी मिलन है। योग का मतलब ही मिलन है।यह बड़े मजे की बात है। लोग भोग का मतलब तो समझते हैं मिलन और योग का मतलब समझते हैं त्याग। भोग भी मिलन है, योग भी मिलन है। भोग बाहर जाकर मिलना होता है, योग भीतर मिलना होता है। दोनों मिलन हैं। और दोनों का सार संभोग है। भीतर, मेरे स्त्री और पुरुष जो मेरे भीतर हैं, अगर वे मिल जाएं मेरे भीतर, तो फिर मुझे बाहरकी स्त्री और बाहर के पुरुष का कोई प्रयोजन रहा। और जिस व्यक्ति के भीतर की स्त्री और पुरुष का मिलन हो जाता है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। भोजन कम करने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; स्त्री से, पुरुष से भाग कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। आंखें बंद कर लेने से, सूरदास हो जाने सेआंखें फोड़ लेने सेकोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने का एकमात्र उपाय है: भीतर की स्त्री और पुरुष का मिल जाना।..............ओशो

जय महादेव


"योनमुद्रा"
काम उर्जा का साक्षी साधना में उपयोग करने का बेजोड़ उपाय...
सद्गुरु इसे 'योनमुद्रा' कहते हैं। जब भी मन को कामवासना पकड़े या उत्तेजना हो, तो आत्मग्लानि महसूस करते हुए इस प्रयोग को करें। उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है! तो क्यों हम इस उर्जा का, जो उठ चुकी है, यदि हम इसका उपयोग नहीं करेंगे तो यह अपना काम करेगी! 'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!! उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी! इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों हम भीतर के लिए उपयोग करें?
वे कहते हैं कि' कामवासना के पकड़ने पर, मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं। और सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम कमरे में बैठे छत को देखते हैं। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है।
हम चकित होंगे! यदि हमने मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लिया (जिसे मूलबंध लगाना कहते हैं। सक्रिय ध्यान करें तो यह 'अपने' से लगता है।) और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं, तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र (मूलाधार) पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर, यानी काम से राम की ओर बढ़ने लगती है।
...एक बात और! इस प्रयोग को हम एक महत्वपूर्ण 'समय' पर भी कर सकते हैं। जब हम रात को सोते हैं, तो हमारी श्वास गहरी होती है। यानी नाभि के नीचे कामकेन्द्र को छूती है। और सुबह तक कामकेन्द्र पर बहुत सारी उर्जा इकठ्ठी हो जाती है, जिसके कारण लिंगोत्थान होता है... बिस्तर से उठने के बाद यह उर्जा मूत्रद्वार से बाहर चली जाती है! यानी यह उर्जा बहुत थी 'कामवासना' के लिए! अर्थात हमारी जो उर्जा हम कामवासना में खर्च कर रहे हैं, वह उर्जा 'फिजूल' जा रही!! तो क्यों हम इस बाहर जाती उर्जा का 'स्खलन' से 'उर्ध्वगमन' की ओर मुंह मोड़ दें?
सुबह जैसे ही नींद से बाहर आएं, सोये रहें और आँखें बंद कर इस प्रयोग को शुरू करें। मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लें और फिर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। हम यहां एक चमत्कार घटित होते देखेंगे! कुछ ही क्षणों में उर्जा रीढ़ के माध्यम से कामकेन्द्र से उपर की ओर बहनी शुरू हो जायेगी और कामकेन्द्र शिथिल हो जायेगा। इस तरह से हम बाहर जाती उर्जा को भीतर की ओर दिशा दे देंगे, तो ध्यान के लिए हमें अलग से समय और उर्जा की जरूरत नहीं रह जायेगी। कहते हैं कि बूंद- बूंद से ही घड़ा भरता है... लेकिन घड़े में यदि छेद हो तो नहीं भरेगा! इस बाहर जाती उर्जा को भीतर लौटाना ही घड़े का छेद बंद करना है। भीतर लौटकर यह उर्जा हमारे साक्षी की ओर बहने लगती है, तथा साक्षी को और भी प्रगाढ़ करती है। यह छोटे - छोटे प्रयोग यदि हम अपनाते हैं, तो ध्यान का हमारे जीवन में प्रवेश आसान हो जाएगा।

(यह विधि ओशो की पुस्तक 'ओशो ध्यान योग' में संकलित है)

जिस व्यक्ति को संभोग का कोई अनुभव नहीं होता, वह अक्सर समाधि की तलाश में निकल जाता है। वह अक्सर सोचता है कि संभोग से कुछनहीं मिलता, समाधि कैसे पाऊं? लेकिन उसके पास झलक भी नहीं है,जिससे वह समाधि की यात्रा पर निकल सके।स्त्री-पुरुष का मिलन एक गहरा मिलन है। और जो व्यक्ति उस छोटे से मिलन को भी उपलब्ध नहीं होता, वह स्वयं के और अस्तित्व के मिलन को उपलब्ध नहीं हो सकेगा। स्वयं का और अस्तित्व का मिलन तो और बड़ा मिलन है, विराट मिलन है। यह तो बहुत छोटा सा मिलन है। लेकिन इस छोटे मिलन में भी अखंडता घटित होती है– छोटी मात्रा में। एक और विराट मिलन है, जहां अखंडता घटित होती है–स्वयं के और सर्व के मिलन से। वह एक बड़ा संभोग है, और शाश्वत संभोग है।यह मिलन अगर घटित होता है, तो उस क्षण में व्यक्ति निर्दोष हो जाता है। मस्तिष्क खो जाता है; सोच-विचार विलीन हो जाता है; सिर्फ होना,मात्र होना रह जाता है, जस्ट बीइंग। सांस चलती है, हृदय धड़कता है,होश होता है; लेकिन कोई विचार नहीं होता। संभोग में एक क्षण को व्यक्ति निर्दोष हो जाता है।अगर आपके भीतर की स्त्री और पुरुष के मिलने की कला आपको आ जाए, तो फिर बाहर की स्त्री से मिलने की जरूरत नहीं है। लेकिन बाहर की स्त्री से मिलना बहुत आसान, सस्ता; भीतर की स्त्री से मिलना बहुत कठिन और दुरूह। बाहर की स्त्री से मिलने का नाम भोग; भीतर की स्त्री से मिलने का नाम योग। वह भी मिलन है। योग का मतलब ही मिलन है।यह बड़े मजे की बात है। लोग भोग का मतलब तो समझते हैं मिलन और योग का मतलब समझते हैं त्याग। भोग भी मिलन है, योग भी मिलन है। भोग बाहर जाकर मिलना होता है, योग भीतर मिलना होता है। दोनों मिलन हैं। और दोनों का सार संभोग है। भीतर, मेरे स्त्री और पुरुष जो मेरे भीतर हैं, अगर वे मिल जाएं मेरे भीतर, तो फिर मुझे बाहरकी स्त्री और बाहर के पुरुष का कोई प्रयोजन न रहा। और जिस व्यक्ति के भीतर की स्त्री और पुरुष का मिलन हो जाता है, वही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। भोजन कम करने से कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होता; न स्त्री से, पुरुष से भाग कर कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। न आंखें बंद कर लेने से, न सूरदास हो जाने से–आंखें फोड़ लेने से–कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होता है। ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने का एकमात्र उपाय है: भीतर की स्त्री और पुरुष का मिल जाना।ओशो
 

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