शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

ऊर्जा



🌞ऊर्जा तो ऊर्जा है 🌞
ऊर्जा तो केवल ऊर्जा है वह
अच्छी या बुरी नहीं होती, इसका उपयोग अच्छा या बुरा होता है। दुनिया में हर शाक्ति केवल शाक्ति है।जैसे विद्युत एक शाक्ति है ,आग एक शक्ति है। हम आग से भोजन बना सकते हैं या घर में आग भी लगा सकते हैं ।झ्सके उपयोग में इरादे बुरे हो सकते हैं ।शाक्ति अपने स्वभाव के अनुकूल ही कार्य करती है यह नहीं कह सकती है कि नहीं हम यह कार्य नहीं करेंगे क्योकि यह कार्य बुरा है ।यह भी नहीं कहेगी कि हम यह कार्य करेंगे क्योंकि यह कार्य अच्छा है।
इसी प्रकार मन भी एक शाक्ति है मन को जिस् भी भाँति संस्कारित किया जाय अथवा प्रशिक्षित किया जाय तो वह उसी प्रकार से कार्य करना प्रारम्भ कर देता है क्योंकि मन तो ऊर्जा के सिद्धांत पर ही कार्य करता है। किसी भी वस्तु के दो पहलू होते है।यदि किसी चीज का उपयोग सृजनात्मक हो सकता है तो वही चीज विध्वंसक भी हो सकती है अब कोई चीज सृजनात्मक रहे तो इसके लिए उपयोगकर्ता को शाक्ति के प्रवाह की एक दिशा निर्धारित्त करने की आवश्यकता होती है एवं सतत आवजर्वेशन की आवश्यकता होती है ।मन भी एक शाक्ति है तो इसके साथ भी यही नियम लागू होता है। इसके भी प्रवाह की एक दिशा निर्धारित करने एवं सतत अजर्वेशन की आवश्यकता हैं। यह कार्य विना साक्षीभाव के संभव नही हो पाता मन के स्तर पर विलाप करने से कुछ नहीं होगा इसका यदि समाधान है तो समाधि से ,जिसके लिए साक्षी भाव आनिबार्य कुंजी है।




"योनमुद्रा"
काम उर्जा का साक्षी साधना में उपयोग करने का बेजोड़ उपाय...
सद्गुरु इसे 'योनमुद्रा' कहते हैं। जब भी मन को कामवासना पकड़े या उत्तेजना हो, तो आत्मग्लानि महसूस करते हुए इस प्रयोग को करें। उर्जा यदि कामकेन्द्र पर पहुंच चुकी है, तो उसे लौटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है! तो क्यों हम इस उर्जा का, जो उठ चुकी है, यदि हम इसका उपयोग नहीं करेंगे तो यह अपना काम करेगी! 'सृजन' नहीं, तो 'विध्वंस'!! उर्ध्वगामी नहीं तो अधोगामी! इस बाहर जाती उर्जा का, क्यों हम भीतर के लिए उपयोग करें?
वे कहते हैं कि' कामवासना के पकड़ने पर, मूत्रद्वार और गुदाद्वार दोनों को भीतर सिकोड़ लें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम मल-मूत्र को रोकते हैं। और सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें, ठीक उसी तरह जिस तरह से हम कमरे में बैठे छत को देखते हैं। आँखें बंद करके सारा ध्यान सिर में लगा दें, जहां अंतिम सहस्त्रार चक्र है।
हम चकित होंगे! यदि हमने मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लिया (जिसे मूलबंध लगाना कहते हैं। सक्रिय ध्यान करें तो यह 'अपने' से लगता है।) और आँखें बंद कर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करते हैं... और देखते रहते हैं... देखते रहते हैं... देखते रहते हैं, तो कुछ ही क्षणों में कामकेन्द्र (मूलाधार) पर उठी उर्जा, रीढ़ के माध्यम से चक्रों पर गति करती हुई सहस्त्रार की ओर, यानी काम से राम की ओर बढ़ने लगती है।
...एक बात और! इस प्रयोग को हम एक महत्वपूर्ण 'समय' पर भी कर सकते हैं। जब हम रात को सोते हैं, तो हमारी श्वास गहरी होती है। यानी नाभि के नीचे कामकेन्द्र को छूती है। और सुबह तक कामकेन्द्र पर बहुत सारी उर्जा इकठ्ठी हो जाती है, जिसके कारण लिंगोत्थान होता है... बिस्तर से उठने के बाद यह उर्जा मूत्रद्वार से बाहर चली जाती है! यानी यह उर्जा बहुत थी 'कामवासना' के लिए! अर्थात हमारी जो उर्जा हम कामवासना में खर्च कर रहे हैं, वह उर्जा 'फिजूल' जा रही!! तो क्यों हम इस बाहर जाती उर्जा का 'स्खलन' से 'उर्ध्वगमन' की ओर मुंह मोड़ दें?
सुबह जैसे ही नींद से बाहर आएं, सोये रहें और आँखें बंद कर इस प्रयोग को शुरू करें। मूत्रद्वार और गुदाद्वार को भीतर सिकोड़ लें और फिर सारा ध्यान सिर में केन्द्रित करें। हम यहां एक चमत्कार घटित होते देखेंगे! कुछ ही क्षणों में उर्जा रीढ़ के माध्यम से कामकेन्द्र से उपर की ओर बहनी शुरू हो जायेगी और कामकेन्द्र शिथिल हो जायेगा। इस तरह से हम बाहर जाती उर्जा को भीतर की ओर दिशा दे देंगे, तो ध्यान के लिए हमें अलग से समय और उर्जा की जरूरत नहीं रह जायेगी। कहते हैं कि बूंद- बूंद से ही घड़ा भरता है... लेकिन घड़े में यदि छेद हो तो नहीं भरेगा! इस बाहर जाती उर्जा को भीतर लौटाना ही घड़े का छेद बंद करना है। भीतर लौटकर यह उर्जा हमारे साक्षी की ओर बहने लगती है, तथा साक्षी को और भी प्रगाढ़ करती है। यह छोटे - छोटे प्रयोग यदि हम अपनाते हैं, तो ध्यान का हमारे जीवन में प्रवेश आसान हो जाएगा।
(यह विधि ओशो की पुस्तक 'ओशो ध्यान योग' में संकलित है)
ओशो : मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--5)
मंदिर के आंतरिक अर्थ (पोस्ट 65)
अभी सिर्फ चालीस साल पहले काशी में एक साधु हुए हैं विशुद्धानन्द। सिर्फ ध्वनियों के विशेष आघात से किसी की भी मृत्यु हो सकती थी, ऐसे सैकड़ों प्रयोग विशुद्धानन्द ने करके दिखाए। वह साधु अपने बन्द मन्दिर के गुम्बज में बैठा था जो बिलकुल 'अनहाईजीनिक' था।
पहली दफा तीन अंग्रेज डाक्टरों के सामने प्रयोग किया गया। वे तीनों अंग्रेज डाक्टर एक चिड़िया को लेकर अन्दर गए। विशुद्धानन्द ने कुछ ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फडायी और मर गयी। उन तीनों ने जांच कर ली कि वह मर गयी। तब विशुद्धानन्द ने दूसरी ध्वनियां कीं, वह चिड़िया तड़फड़ायी और जिन्दा हो गयी! तब पहली दफा शक पैदा हुआ कि ध्वनि के आघात का परिणाम हो सकता है! अभी हम दूसरे आघातों के परिणामों को मान लेते हैं क्योंकि उनको विज्ञान कहता है।
हम कहते है कि विशेष किरण आपके शरीर पर पड़े तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष औषधि आपके शरीर में डाली जाए तो विशेष परिणाम होंगे। विशेष रंग विशेष परिणाम लाते हैं। लेकिन विशेष ध्वनि क्यों नहीं? अभी तो कुछ प्रयोगशालाएं पश्चिम में, ध्वनियों का जीवन से क्या संबंध हो सकता है, इस पर बड़े काम में रत है।
दो तीन प्रयोगशालाओं में बड़े गहरे परिणाम हुए हैं। इतना तो बिलकुल साफ हो गया है कि विशेष ध्वनि का परिणाम, जिस मां की छाती से दूध नहीं निकल रहा है, उसकी छाती से दूध लाया जा सकता है। विशेष ध्वनि करने पर जो पौधा छह महीने में फूल देता है वह दो महीने में फूल दे सकता है। जो गाय जितना दूध देती है उससे दुगुना दे सकती हैविशेष ध्वनि पैदा की जाए तो।
आज रूस की डेअरीज में बिना ध्वनि के कोई गाय से दूध नहीं दुहा जा रहा है। और बहुत जल्दी कोई फल, कोई सब्जी बिना ध्वनि के पैदा नहीं होगी। क्योंकि प्रयोगशाला में तो यह सिद्ध हो गया है, अब व्यापक फैलाव की बात है। अगर फल, सब्जी, दूध और गाय ध्वनि से प्रभावित होते हैं, तो कोई कारण नहीं है कि आदमी प्रभावित हो।
स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य ध्वनि की विशेष तरंगों पर निर्भर है। इसलिए तब बहुत गहरी 'हाईजीनिक' व्यवस्था थी जो हवा से बंधी हुई नहीं थी। सिर्फ हवा मिल जाने से ही कोई स्वास्थ्य जाने वाला है, ऐसी धारणा नहीं थी। नहीं तो यह असम्भव है, कि पांच हजार साल के लम्बे अनुभव में यह खयाल में गया होता! हिन्दुस्तान का साधु बन्द गुफाओं में बैठा है जहां रोशनी नहीं जाती, हवा नहीं जाती। बन्द मंदिरों में बैठा है। छोटे दरवाजे हैं, जिनमें से झुककर अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। कुछ मंदिरों में तो रेंगकर ही अन्दर प्रवेश करना पड़ता है। फिर भी स्वास्थ्य पर इसका कोई बुरा परिणाम कभी नहीं हुआ था।
हजारों साल के अनुभव में कभी नहीं आया कि इनका स्वास्थ्य पर बुरा परिणाम हुआ है। पर जब पहली दफा संदेह उठा तो हमने अपने मंदिरों के दरवाजे बड़े कर लिए। खिड़कियां लगा दीं। हमने उनको 'माडर्नाइज' किया, बिना यह जाने हुए कि वह 'माडर्नाइज' होकर साधारण मकान हो जाते हैं। उनकी वह 'रिसेटिविटी' खो जाती है जिसके लिए वह कुंजी है।
इसका मतलब यह नहीं होता कि किताबों में सकारात्मक सोच पर जो बातें कही गई थीं, उनमें कहीं कोई गलती थी। गलती मूलतः हममें खुद में होती है। हम अपनी ही कुछ आदतों के इस कदर बुरी तरह शिकार हो जाते हैं कि उन आदतों से मुक्त होकर कोई नई बात अपने अंदर डालकर उसे अपनी आदत बना लेना बहुत मुश्किल काम हो जाता है लेकिन असंभव नहीं। लगातार अभ्यास से इसको आसानी से पाया जा सकता है।

महसूस करते हैं कि हमारा जीवन मुख्यतः हमारी सोच का ही जीवन होता है। हम जिस समय जैसा सोच लेते हैं, कम से कम कुछ समय के लिए तो हमारी जिंदगी उसी के अनुसार बन जाती है। यदि हम अच्छा सोचते हैं, तो अच्छा लगने लगता है और यदि बुरा सोचते हैं, तो बुरा लगने लगता है। इस तरह यदि हम यह नतीजा निकालना चाहें कि मूलतः अनुभव ही जीवन है, तो शायद गलत नहीं होगा।

आप थोड़ा सा समय लगाइए और अपनी जिंदगी की खुशियों और दुःखों के बारे में सोचकर देखिए। आप यही पाएंगे कि जिन चीजों को याद करने से आपको अच्छा लगता है, वे आपकी जिंदगी को खुशियों से भर देती हैं और जिन्हें याद करने से बुरा लगता है, वे आपकी जिंदगी को दुखों से भर देती हैं।




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