*अंग्रेज भी जिनके नाम से पसीने छोड़ देते थे उन महारानी लक्ष्मीबाई का जानिए इतिहास*
🕉️19 नवम्बर 1835 जन्म दिवस
(महारानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस :18 जून )
ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रण यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाली, वीरोचित गुणों से भरपूर वीरांगना अमर देशभक्ति और बलिदान की अनुपम गाथा रानी लक्ष्मीबाई जी की जयंती पर शत-शत नमन🙏🏻🕉️
♦️भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
🔶19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उन्हें घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनंद आता था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
🔶उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर उनके परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - "मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।"
♦️अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
🔶इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी गोटियाँ बैठा रहे थे।
♦️जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
🔶कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 18 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।
♦️भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
🔶19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उन्हें घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनंद आता था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
🔶उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर उनके परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - "मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।"
♦️अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
🔶इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी गोटियाँ बैठा रहे थे।
♦️जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
🔶कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 18 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।
भारतीय नारी ने समग्र विश्व में अपनी एक विशेष पहचान बनायी है । अपने श्रेष्ठ चरित्र, वीरता तथा बुद्धिमत्ता के बल पर उसने मात्र भारत ही नहीं अपितु समस्त नारी जाति को गौरवान्वित किया है । उनका संयम, साहस व वीरता आज भी प्रशंसनीय है । भारत के इतिहास में ऐसी अनेक नारियों का वर्णन पढ़ने-सुनने को मिलता है ।
झाँसी कि रानी लक्ष्मीबाई का नाम भी ऐसी ही महान नारियों में आता है । रानी लक्ष्मीबाई का जीवन बड़े-बड़े विघ्नों में भी अपने धर्म को बनाये रखने तथा परोपकार के लिए बड़ी-से-बड़ी सुविधाओं को भी तृण कि भाँति त्याग देने की प्रेरणा देता है ।
सन् 1835 में महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण कुल में जन्मी "मनुबाई" जिसे लोग प्यार से ‘छबीली’ भी कहते थे अपनी वीरता एवं बुद्धिमत्ता के प्रभाव से झाँसी की रानी बनी । झाँसी के राजा गंगाधर राव से विवाह के पश्चात् वे ‘रानी लक्ष्मीबाई’ के नाम से पुकारी जाने लगीं ।
गंगाधर राव वृद्ध तथा निःसन्तान थे । उनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी । राज्य का उत्तराधिकारी न होने के कारण उन्होंने वृद्धावस्था में भी विवाह किया । अपने धर्म को निभाते हुए लक्ष्मीबाई ने पति कि सेवा के साथ-साथ राजनीति में भी रुचि दिखाना प्रारम्भ कर दिया ।
समय पाकर गंगाधर राव को पुत्ररत्न कि प्राप्ति हुई परंतु एक गंभीर बीमारी ने राजकुमार के प्राण ले लिए । गंगाधर राव पर मानो वज्रपात हो गया और उन्होंने चारपाई पकड़ ली । श्वास फूलने लगा । रोगाधीन हो गए । उस समय देश में ब्रिटिश शासन था । सभी राज्य अंग्रेजी सरकार के नियमों के अनुसार ही चलते थे । राजा नाममात्र का शासक होता था । महाराज गंगाधर राव ने ब्रिटिश सरकार को इस आशय का एक पत्र लिखा : ‘‘रानी को अपने परिवार से किसी पुत्र को गोद लेने कि अनुमति दी जाय तथा भविष्य में उसी दत्तक पुत्र को झाँसी का शासक बनाया जाय ।’’
ब्रिटिश सरकार ने गंगाधर राव के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । उसने आदेश पारित किया कि : ‘‘यदि रानी को कोई संतान नहीं है तो झाँसी राज्य को सरकार के आधीन कर लिया जाय ।’’ फिर झाँसी को अंग्रेजों ने हस्तगत कर लिया । गंगाधर राव को एक और चोट लगी और उनकी मृत्यु हो गई । एकलौते पुत्र के बाद अपने पति की मृत्यु तथा अंग्रेजों के प्रतिबन्धों के बावजूद भी भारत की इस वीरांगना ने अपना धैर्य नहीं खोया । उसने राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली तथा अपने पति की अंतिम इच्छा को पूरी करने के लिए दामोदर राव को अपना दत्तक पुत्र बना लिया ।
रानी का यह साहसिक कदम अंग्रेजों कि चिंता का विषय बन गया । उन्हें लक्ष्मीबाई के रूप में सुलगती क्रांति कि चिंगारी साफ-साफ दिखाई देने लगी । अंग्रेजी सरकार ने झाँसी के राज्य को तुरंत अपने अधीन कर लिया तथा गंगाधर राव के नाम पर रानी को मिलनेवाली पेन्शन भी बन्द कर दी । इसके साथ ही सरकार ने झाँसी में गोवध को बंद करने के रानी के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया । चारों ओर से विपरीत परिस्थितियों से घिरे होने तथा सैन्य-शक्ति न होने के बावजूद भी रानी लक्ष्मीबाई के मन मेें झाँसी को स्वतंत्र कराने के ही विचार आते थे ।
इसी समय भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों द्वारा कारतूस में गाय तथा सूअर कि चर्बी मिलाये जाने कि घटना के कारण अनेक स्थानों पर विद्रोह कर दिया । वीर मंगल पाण्डेय के बलिदान ने देशभर में क्रांति की आग फैला दी तथा 10 मई, सन् 1857 को इस विद्रोह ने भयंकर रूप ले लिया । देशभर में विद्रोह कि आँधी चल पड़ी जिससे अंग्रेजों को अपने प्राण बचाने भारी पड़ गये ।
झाँसी में क्रांति कि आग न लगे इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने अपनी कूटनीति का सहारा लिया । सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई से प्रार्थना की कि : ‘‘जगह-जगह युद्ध छिड़ रहे हैं और इसके पहले कि झाँसी भी इसकी चपेट में आये, आप राज्य कि रक्षा का दायित्व अपने हाथ में ले लें और हम सबकी रक्षा करें । झाँसी कि जनता आपसे अत्यधिक प्रेम करती है अतः आपकी इच्छा के विपरीत वह विद्रोह नहीं करेगी ।’’
रानी के लिए राज्य-प्राप्ति का यह एक सुंदर अवसर था जब अंग्रेज स्वयं उन्हें झाँसी राज्य का शासन सौंप रहे थे । रानी के एक ओर झाँसी का सिंहासन था तथा दूसरी ओर स्वतंत्रता कि वह क्रांति जो देशभर में फैल रही थी । रानी चाहती तो सरकार कि सहायता करके तथा झाँसी की क्रांति को रोककर अपने खोये हुए राज्य को प्राप्त कर सकती थी । परंतु धन्य है भारत की यह निर्भीक वीरांगना जिसने देश कि स्वतंत्रता के लिए सिंहासन को भी ठुकरा दिया । रानी ने स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे देशभक्तों कि सहायता करने का निश्चय किया । उन्होंने सरकार को जवाब देते हुए कहा : ‘‘जब मेरे सामने राज्य-प्राप्ति कि समस्या थी तब तो मुझे राज्य नहीं दिया गया । आज आप लोगों के हाथों से वही राज्य छिन जाने का समय आ गया है तो राज्य की रक्षा का दायित्व मुझे दे रहे हैं ।’’
रानी के ये शब्द अंग्रेजी सरकार को तीर की भाँति चुभे । रानी ने अंग्रेजी सेना को अपने यहाँ शरण नहीं दी अतः उन्हें निराश होकर जाना पड़ा । सैनिक विद्रोह ने जोर पकड़ा तथा झाँसी में भी क्रांति की लहर चल पड़ी । अंग्रेजों की छावनियाँ तहस-नहस कर दी गईं तथा अंग्रेजों को झाँसी छोड़कर भागना पड़ा । झाँसी का राज्य क्रांतिकारियों के हाथों में आ गया । वहाँ उन्होंने लक्ष्मीबाई को रानी के रूप में स्वीकार कर लिया ।
रानी ने झाँसी में लगभग एक वर्ष तक शांतिपूर्वक शासन किया परंतु कुछ समय बाद झाँसी के राज्य पर फिर से अंग्रेजों कि काली दृष्टि पड़ी । जनरल ह्यू रोज के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया ।
रानी लक्ष्मीबाई के पास सैन्य-शक्ति अधिक नहीं थी । उधर उनकी सहायता के लिए आ रहे नाना साहब तथा तात्या टोपे की सेना को अंग्रेजों कि विशाल सेना ने रास्ते में ही रोक लिया । रानी के कई वफादार एवं वीर सिपाही युद्ध में शहीद हो गये । ऐसी परिस्थिति में भी लक्ष्मीबाई के साहस में कोई कमी नहीं आयी तथा परतंत्रता के जीवन कि अपेक्षा स्वतंत्रता के लिए मर-मिट जाना उन्हें अधिक अच्छा लगा । उन्होंने मर्दों की पोशाक पहनी तथा अपने दत्तक पुत्र को अपनी पीठ पर बाँध लिया । महलों में पलनेवाली रानी लक्ष्मीबाई हाथ में चमकती हुई तलवार लिये घोड़े पर सवार होकर रण के मैदान में उतर पड़ीं ।
मुशर नदी के किनारे रानी लक्ष्मीबाई एवं जनरल ह्यू रोज कि सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ तथा रानी कि लपलपाती तलवार अंग्रेजी सेना को गाजर-मूली कि तरह काटने लगी । रानी कि छोटी-सी सेना अंग्रेजों कि विशाल सेना के आगे अधिक देर तक नहीं टिक सकी । दुर्भाग्यवश रानी के मार्ग में एक नाला आ गया जिसे उनका घोड़ा पार नहीं कर सका । फलतः चारों ओर से ब्रिटिश सेना ने उन्हें घेर लिया । अंततः अपने देश कि स्वतंत्रता के लिए लड़ते-लड़ते रानी वीरगति को प्राप्त हुईं जिसकी गाथा सुनकर आज भी उनके प्रति मन में अहोभाव उभर आता है । छोटे-से ब्राह्मण कुल में जन्मी इस बालिका ने अपनी वीरता, साहस, संयम, धैर्य तथा देशभक्ति के कारण सन् 1857 के महान क्रांतिकारियों की शृृंखला में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा दिया ।
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