माल्टा और किन्नू की खेती को अपनाकर इस दम्पत्ति ने पेश की मिसाल आला दर्जे की पढ़ाई के बाद भी कृषि से है मालामाल
राजस्थान के बॉर्डर पर रेतीली बालू माटी के गांव बरालू में जब कुंओं में पानी सूख गया तो प्रगतिशील किसान धर्मपाल डूडी के परिवार ने निराश होने की बजाए कुछ नया करने का सोचा। जिस अढाई किला भूमि में साल में 50 हजार रुपये की भी आमदनी नहीं होती थी, उसी में इस परिवार ने मौसमी, किन्नू और माल्टा के कुल 300 पौधे लगाकर साढे सात लाख रुपये सालाना कमाने शुरू कर दिए। जिस बागवानी विभाग ने मिट्टी की घटिया गुणवता बताकर ड्रीप सिस्टम की सब्सिडी फाइल को रद कर दिया था, उसी विभाग ने इस किसान परिवार की मेहनत के आगे झुकते हुए न केवल सब्सिडी दी बल्कि तालाब आदि भी खुदवाकर दिए।
प्रगतिशील किसान धर्मपाल डूडी का यह परिवार आज समूचे लोहारू क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बना हुआ है।
सड़क या अन्य पक्के रास्ते से बहुत दूर रेलवे पटरी के किनारे बरालू गांव हद में बने इस बाग के ये मौसमी, कीनू और माल्टा के फल हरियाणा ही नहीं बल्कि राजस्थान राजगढ़, चिड़ावा, झुंझुनू तक जाते हैं। व्यापारी खुद ही यहां आकर ये फल लेकर जाते हैं। इसके पीछे का राज इस बाग का पूरी तरह आॅर्गेनिक होना है। यहां खाद, कीटनाशक आदि सबकुछ पूरी तरह प्राकृतिक प्रयोग किए जाते हैँ। मूर्ति कला में पारंगत एवं एमफिल डिग्री धारक धर्मपाल डूडी ने बागवानी में अपनी इस सफलता के बारे में बताया कि डालनवास गांव में उनकी बहन के खेतों में खड़े बाग से उन्हें प्रेरणा मिली थी। इसके अलावा उनके बुजुर्ग पिता इंद्रसिंह ने उनका हौसला बढ़ाया। बहन के खेतों से उन्होंने प्रयोग के तौर पर 2014 में तीन पौधे यहां लगाए थे।
इन तीन पौधों से बहुत पैदावार मिली। इसके बाद उन्होंने राजस्थान के गंगानगर नर्सरी से मौसमी, माल्टा व कीनू के 100-100 पौधे लाकर लगाए। ये सभी जाफा किस्म के थे। इन पौधों से उन्हें साढे 8 लाख रुपये सालाना की फसल मिलती है। करीबन एक लाख रुपये मेहनत-मजदूरी का खर्चा घटा भी दें तो पूरे साढे सात लाख रुपये की आमदनी होती है। इसके अलावा सब्जियां भी उगाई जाती हैं। ये सभी फल, सब्जियां आदि पूरी तरह आॅर्गेनिक होते हैं। देशी खाद व गोमूत्र से बनाए गए कीटनाशकों का प्रयोग किया जाता है। सरकार के तीन कृषि कानूनों के बारे में मच रहे हल्ले के बारे में पूछने पर धर्मपाल डूडी ने बताया कि ये कानून किसानों के लिए बहुत अच्छे हैं।
कंपनियां खुद ही खेतों में आकर फल व अनाज आदि की फसलें खरीदकर ले जाएंगी। किसानों ने 70 साल तक पुरानी कृषि व्यवस्थाओं को देखा है तो अब पांच साल इन नए कानूनों को भी देख लिया जाए। ना पसंद आएं तो कौनसा अंग्रेजों का शासन है, सरकार को ही बदला जा सकता है। इस बागवानी में सरकार की मदद के सवाल पर उन्होंने बताया कि पहले तो बागवानी विभाग ने उनकी मिट्टी खराब होने की बात कहकर उनकी फाइलों को रद्द कर दिया था, लेकिन बाद में उनकी मेहनत के आगे विभाग ने उन्हें ड्रिप सिस्टम पर 75 फीसदी तक सब्सिडी दी। इतना ही नहीं सरकार ने उन्हें 2019 में 100 फीसदी सब्सिडी पर सवा दो लाख रुपये की लागत से कम्यूनिटी टैंक बनवाकर दिया। इससे बारिश का सारा पानी इस टैंक में आ जाता है जिससे पौधों में सिंचाई की जाती है। उन्होंने किसानों से आह्वान किया कि वे भी परंपरागत खेती के साथ-साथ बागवानी खेती करके जरूर देखें।
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