गुरुवार, 29 मार्च 2018

ओशो गीता दर्शन प्रवचन 16, भाग 2

*_ भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ के गुण—लक्षण कहते हुए आपने यह तो विशदता की कि उसकी सेंसिटिविटी ब्लंट नहीं होती। तो स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में विगतस्पृह रहेगा और दुख में अनुद्विग्नमन रहेगा। तो इसमें एक बाधा पड़ जाती है। अगर वह सुख को सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, तो उसकी संवेदना को ह्यूमन, मानवीय कैसे कहें? स्थितप्रज्ञ होना क्या सुपर ह्यूमन फिनामिनन है? जिसकी प्रज्ञा जागी, थिर हुई, अकंप हुई, क्या उसे कष्ट का पता नहीं चलेगा?_*

 कष्ट तथ्य है, दुख व्याख्या है। पैर में काटा चुभता है, तो चुभन तथ्य है, फैक्ट है, स्थितप्रज्ञ को भी होगी। स्थितप्रज्ञ मर नहीं गया है कि पैर में काटा चुभे तो पता नहीं चले। पता चलेगा। शायद आपसे ज्यादा पता चलेगा। क्योंकि उसकी प्रज्ञा ज्यादा शात है, ज्यादा संवेदनशील है। उसकी अनुभूति की क्षमता आपसे गहरी और घनी है। उसका बोध, उसकी सेंसिटिविटी आपसे प्रगाढ़ है, अनंत गुना प्रगाढ़ है। शायद आपको जो काटा चुभा है, इस तरह कभी पता ही नहीं चला होगा, जैसा उसको पता चलेगा। क्योंकि पता चलना ध्यान की क्षमता पर निर्भर होता है।
 एक युवक खेल रहा है हाकी मैदान में। पैर पर चोट लग गई है हाकी की। खून बह रहा है अंगूठे से। नाखून टूट गया है। उसे कुछ पता नहीं है। सारे देखने वाले देख रहे हैं कि पैर से खून टपक रहा है। वह दौड़ रहा है, और खून की बिंदुओं की कतार बन जाती है। फिर खेल खत्म हुआ और वह पैर पकड़कर बैठ गया है। और वह कह रहा है कि कब यह चोट लग गई? मुझे कुछ पता नहीं है! क्या हुआ? चोट लगी और पता नहीं चला!
 असल में जब चोट लगी, तब उसकी अटेंशन कहीं और थी, ध्यान कहीं और था। और ध्यान के बिना पता नहीं चल सकता। अंगूठे तक पहुंचने के लिए ध्यान उसके पास था ही नहीं। ध्यान एंगेब्द था, आकुपाइड था, पूरा का पूरा संलग्न था खेल में। अभी ध्यान के पास सुविधा न थी कि अंगूठे तक जाए। तो अंगूठा पड़ा रहा, चिल्लाता रहा कि चोट लगी है, चोट लगी है। लेकिन कहीं कोई सुनवाई न थी। सुनने वाला मौजूद नहीं था। सुनने वाला उस यात्रा पर जाने को राजी नहीं था, जहां अंगूठा है। सुनने वाला अभी कहीं और था, व्यस्त था। फिर खेल बंद हुआ; व्यस्तता समाप्त हुई। सुनने वाला, ध्यान, अटेंशन वापस आया। अब फुर्सत थी। वह पैर की तरफ भी गया। वहां पता चला कि खून बह रहा है, चोट लग गई है, दर्द है।
 तो स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञा तो पूरे समय अव्यस्त है, अनआकुपाइड है। जिस व्यक्ति का चित्त बिलकुल शांत है, उसकी चेतना हमेशा अव्यस्त है। उसकी चेतना कहीं भी उलझी नहीं है, सदा अपने में है। तो उसके पैर में अगर कांटा गड़ेगा, तो अनंत गुना अनुभव उसे होगा, जितना हमें होता है। कष्ट तथ्य है, वह जानेगा कि पैर में कष्ट है। लेकिन पैर में कष्ट उसका, मुझमें दुख है, ऐसी व्याख्या नहीं बनेगा। पैर का कष्ट एक घटना है—बाहर, दूर, अलग।
 मैं एक गांव में ठहरा था। मेरे पड़ोस के मकान में आग लग गई। एक बहुत मजेदार दृश्य देखने को मिला। तीन मंजिल मकान है। पूरे मकान पर टीन ही टीन छाए हुए हैं। दूसरे मंजिल पर आग लगी। बीड़ी के पत्ते रखे हुए हैं। मकान मालिक इतना उद्विग्न हो गया कि वह तीसरी मंजिल पर चढ़ गया, जहां उसकी टंकी है पानी की। और उसने टंकी से बालटिया लेकर पानी फेंकना शुरू कर दिया तीसरी मंजिल से। सारा मकान टीन से छाया हुआ है। टीन आग की तरह लाल तप रहे हैं। वह पानी उन टीनों पर गिरे और वह पानी जाकर नीचे खड़े लोगों पर गिरे, जो घर से बच्चों को निकाल रहे हैं, सामान निकाल रहे हैं। जिस पर वह पानी गिर जाए, वही चीखकर भागे कि मार डाला! फिर कोई उसके पास आने को तैयार न हुआ।
 भीड़ खड़ी है, सारे लोग नीचे से चिल्ला रहे हैं, तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो! पानी डालना बंद करो, नहीं तो तुम्हारे बच्चे अंदर मर जाएंगे। तुम्हारे घर से एक चीज न निकाली जा सकेगी। लेकिन वह आदमी बस इतना ही चिल्ला रहा है, बचाओ! आग लग गई! बचाओ! आग लग गई! और पानी डालता चला जा रहा है। उस आदमी ने—आग ने नहीं—उस पूरे मकान को जलवा त्. दिया। क्योंकि एक आदमी भी बुझाने की स्थिति में भीतर नहीं जा सका। एक बच्चा भी मरा, आग से नहीं, उसके पानी से। उस तक पहुंचने का भी कोई उपाय न रहा कि कैसे उस तक कोई चढ़कर जाए! उसका पानी इतने जोर से आता था कि कौन वहा चढकर जाए! बांसों से लोगों ने दूसरे मकानों पर चढ़कर उस पर चोट की कि भाई साहब! यह क्या कर रहे हो? वह बांस को ऐसा अलग कर दे और कहे कि बचाओ! आग लगी है! और पानी डालता रहा।
 स्थितप्रज्ञ कष्ट और अकष्ट को भलीभांति जानता है। कीटों पर लिटाइए, तो उसे पता चलता है कि काटे हैं; और गद्दी पर बिठाइए, तो उसे पता चलता है कि गद्दी है। लेकिन गद्दी पर बैठने की वह आकांक्षा नहीं बांध लेता, गद्दी पर बैठकर वह पागल नहीं हो जाता, गद्दी से वह एक नहीं हो जाता। गद्दी सुख नहीं बनती, मानसिक व्याख्या नहीं बनती, एक भौतिक तथ्य होती है। काटे भी एक भौतिक तथ्य होते हैं।
 स्थितधी अनुभव में, अनुभूति में, तथ्यों के जानने में पूरी तरह संवेदनशील होता है। लेकिन व्याख्या जो हम करते हैं, वह नहीं करता है। मृत्यु उसकी भी आती है। हम दुखी होते हैं, वह दुखी नहीं होता। वह मृत्यु को देखता है कि मृत्यु आती है। बुढ़ापा उसका भी आता है। ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं चलता कि अब बुढ़ापा आ गया। लेकिन वह बुढ़ापे को देखता है कि जीवन का एक तथ्य है और आता है। वह जवानी को जाते देखता, बुढ़ापे को आते देखता। बुढ़ापे के कष्ट होंगे, शरीर जीर्ण—जर्जर होगा। लेकिन शरीर होगा, स्थितधी को ऐसा नहीं लगता कि मैं हो रहा हूं। लेकिन जब हम बूढ़े होते हैं, तो ऐसा नहीं लगता कि शरीर बूढा हो रहा है, ऐसा लगता है कि मैं बूढ़ा हो रहा हूं।
 हमारे प्रत्येक तथ्य में हमारा मैं तत्काल समाविष्ट हो जाता है। जीवन का कोई तथ्य हमारे मैं की व्याख्या के बाहर नहीं छूटता। हम प्रत्येक तथ्य को तत्काल व्याख्या, इंटरप्रिटेशन बना लेते हैं। स्थितप्रज्ञ की कोई व्याख्या नहीं है। वह अ को अ कहता है, ब को ब कहता है। वह कहीं भी अपने को जोड़ नहीं लेता है। और चूंकि जोड़ता नहीं, इसलिए सदा बाहर खड़े होकर हंस सकता है।
 मैंने सुना है, इपिक्टेटस यूनान में, जिसको कृष्ण समाधिस्थ कहें, ऐसा एक व्यक्ति हुआ। वह कहता था, मुझे मार डालो तो भी मैं हंसता रहूंगा, मुझे काट डालो तो भी मैं हंसता रहूंगा। सम्राट ने उसे पकड़ बुलाया और कहा कि छोड़ो ये बातें। हम बातें नहीं मानते, हम कृत्य मानते हैं। दो पहलवान बुलवाए, जंजीरें बांधकर इपिक्टेटस को डाल दिया और कहा कि इसका एक पैर उखाड़ो। उन पहलवानों ने उसका एक पैर उखाड़ने के लिए पैर मोड़ा। इपिक्टेटस ने कहा कि बिलकुल ठीक, जरा और। अभी तुम जितना कर रहे हो, इससे सिर्फ कष्ट हो रहा है, पैर टूटेगा नहीं। जरा और, बस जरा और कि टूट जाएगा!
 सम्राट ने कहा, तू पागल तो नहीं है! अपने ही पैर को तोड़ने की तरकीब बता रहा है! इपिक्टेटस ने कहा कि मुझे ज्यादा ठीक से पता चल रहा है, उन बेचारों को क्‍या पता चलेगा। दूसरे का पैर मरोड़ रहे हैं। मैं इधर भीतर जान रहा हूं कि तकलीफ बढ़ती जा रही है, तकलीफ बढ़ती जा रही है, बढ़ती जा रही है। अब ठीक वह जगह है, जहां हड्डी टूट जाएगी। पर सम्राट ने कहा, तेरा पैर हम तोड़ रहे हैं!
 इपिक्टेटस ने कहा कि अगर मुझे तोड़ रहे होते, तो बात और होती। मेरे पैर को ही तोड़ रहे हैं न? तो मेरे पैर को आप नहीं तोडेंगे, तो कल मौत तोड देगी। और आप तो सिर्फ पैर ही तोड़ रहे हैं, फुटकर, मौत होलसेल तोड़ देगी, सभी कुछ टूट जाएगा। एक पैर तोड़ रहे हैं, दूसरा तो बचा है। इपिक्टेटस से हम भीतर कह रहे हैं कि देखो बेटे, एक ही टूट रहा है, अभी दूसरा बचा है। अभी तुम इसको ही तुड़वा दो ठीक से।
 फिर यह भी हम अनुभव कर रहे हैं—उसने कहा —कि जितनी देर लगेगी टूटने में, उतनी देर कष्ट होगा। तुम्हारा प्रयोग भी न हो पाएगा, हमारा प्रयोग भी न हो पाएगा। आज मौका आ गया है। कहा हमने सदा है कि कोई तोड़ डाले हमें, तो कुछ न होगा। आज देखने का अवसर तुमने जुटा दिया। तुम भी देख लोगे, हम भी देख लेंगे कि कष्ट दुख बनता है या नहीं बनता है।
 निश्चित ही। सुपर धमन इन अर्थों में नहीं कि उसे काटे नहीं चुभेंगे। इन अर्थों में भी अतिमानवीय नहीं कि उसे बीमारी होगी, तो पीड़ा नहीं होगी। अतिमानवीय इन अर्थों में नहीं कि मौत आएगी, बुढ़ापा आएगा, तो वह का नहीं होगा। नहीं, अतिमानवीय इन अर्थों में कि वह व्याख्या जो मनुष्य की करने की आदत है, नहीं करेगा। वह मनुष्य की व्याख्या करने की आदत के बाहर होगा। इन अर्थों में वह अतिमानव है, सुपरमैन है।

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