शुक्रवार, 30 मार्च 2018

*महावीर वाणी, भाग-२*


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शास्त्र की नाव कागज की नाव है। उससे तो बेहतर है कि बिना नाव के उतर जाना। क्योंकि नाव का भरोसा न हो तो कम से कम अपने हाथ-पैर चलाने की कुछ कोशिश होगी। और जो बिना नाव के उतरेगा, वह तैरना सीखकर उतरेगा। जो नाव में बैठकर उतर जायेगा–और कागज की नाव में–वह इस भरोसे में उतरेगा कि मुझे क्या करना है, नाव पार कर देगी। वह डूबेगा!
लेकिन नाव लोगों ने कागज की बना ली है। इसलिए लोग डूब रहे हैं और जगह-जगह दुर्घटनाएं हैं। और धर्म के नाम पर इतना शोरगुल चलता है, लेकिन धर्म का कोई प्रकाश जीवन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। तो धर्म एक उत्सव हो गया है–कभी-कभी मना लेने की बात; कभी-कभी शोरगुल मचा लेने की बात है कि हम आत्मवादी लोग हैं; कि हम पदार्थ को ही सब कुछ नहीं मानते, हम आत्मा को भी मानते हैं। लेकिन मानने से कुछ भी होनेवाला नहीं है, जानना जरूरी है।


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