गुरुवार, 29 मार्च 2018

ओशो गीता दर्शन प्रवचन

*ओशो :* 🏹 जीवन का सत्य कर्म से उपलब्ध है या ज्ञान से? यदि कर्म से उपलब्ध है, तो उसका अर्थ होगा कि वह हमें आज नहीं मिला हुआ है, श्रम करने से कल मिल सकता है। यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ है, वह हमारा स्वभाव नहीं है, अर्जित वस्तु है। यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ है, उसे हम विश्राम में खो देंगे। जिसे हम कर्म से पाते हैं, उसे निष्कर्म में खोया जा सकता है।
🏹 कृष्ण ने अर्जुन को इस सूत्र के पहले सांख्ययोग की बात कही है। कृष्ण ने कहा, जो पाने जैसा है, वह मिला ही हुआ है। जो जानने जैसा है, वह निकट से भी निकट है। उसे हमने कभी खोया नहीं है। वह हमारा स्वरूप है। तो अर्जुन पूछ रहा है, यदि जो जानने योग्य है, जो पाने योग्य है, वह मिला ही हुआ है और यदि जीवन की मुक्ति और जीवन का आनंद मात्र ज्ञान पर निर्भर है, तो मुझ गरीब को इस महाकर्म में क्यों धक्का दे रहे हैं!
🏹 दुनिया में, सारे जगत में मनुष्य जाति ने जितना चिंतन किया है, उसे दो धाराओं में बांटा जा सकता है। सच तो यह है कि बस दो ही प्रकार के चिंतन पृथ्वी पर हुए हैं, शेष सारे चिंतन कहीं न कहीं उन दो श्रृंखलाओं से बंध जाते हैं। एक चिंतन का नाम है सांख्य और दूसरे चिंतन का नाम है योग। बस, दो ही सिस्टम्स हैं सारे जगत में। जिन्होंने सांख्य का और योग का नाम भी नहीं सुना है—चाहे अरस्तु चाहे सुकरात, चाहे अब्राहिम, चाहे इजेकिअल, चाहे लाओत्से, चाहे कन्‍फ्यूसियस—जिन्हें सांख्य और योग के नाम का भी कोई पता नहीं है, वे भी इन दो में से किसी एक में ही खड़े होंगे। बस, दो ही तरह की निष्ठाएं हो सकती हैं।
🏹 सांख्य की निष्ठा है कि सत्य सिर्फ ज्ञान से ही जाना जा सकता है, कुछ और करना जरूरी नहीं है। कृत्य की, कर्म की कोई भी आवश्यकता नहीं है। प्रयास की, प्रयत्न की, श्रम की, साधना की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जो भी खोया है हमने, वह खोया नहीं, केवल स्मृति खो गई है। याद पर्याप्त है, रिमेंबरिग पर्याप्त है—करने का कोई भी सवाल नहीं है।
🏹 योग की मान्यता है, बिना किए कुछ भी नहीं हो सकेगा। साधना के बिना नहीं पहुंचा जा सकता है। क्योंकि योग का कहना है अज्ञान को भी काटना पड़ेगा; उसके काटने में भी श्रम करना होगा। अज्ञान कुछ ऐसा नहीं है जैसा अंधेरा है कि दीया जलाया और अज्ञान चला गया। अंधेरा कुछ ऐसा है, जैसे एक आदमी जंजीरों से बंधा पडा है। माना कि स्वतंत्रता उसका स्वभाव है, लेकिन जंजीरें काटे बिना स्वतंत्रता के स्मरण मात्र से वह मुक्त नहीं हो सकता है।
🏹 कुंदकुंद ने समयसार में जो कहा है, वह सांख्य की निष्ठा है। शान अपने आप में पूर्ण है, किसी कर्म की कोई जरूरत नहीं है। अर्जुन पूछ रहा है कि यदि ऐसा है कि ज्ञान काफी है, तो मुझे इस भयंकर युद्ध के कर्म में उतरने के लिए आप क्यों कहते हैं? तो मैं जाऊं, कर्म को छोडूं और जान में लीन हो जाऊं! यदि ज्ञान ही पाने जैसा है, तो फिर मुझे ज्ञान के मार्ग पर ही जाने दें।
🏹 अर्जुन भागना चाहता है। और यह बात समझ लेनी जरूरी है कि हम अपने प्रत्येक काम के लिए तर्क जुटा लेते हैं। अर्जुन को ज्ञान से कोई भी प्रयोजन नहीं है। अर्जुन को सांख्य से कोई भी प्रयोजन नहीं है। अर्जुन को आत्मज्ञान की कोई अभी जिज्ञासा पैदा नहीं हो गई है। अर्जुन को प्रयोजन इतनी सी ही बात से है कि सामने वह जो युद्ध का विस्तार दिखाई पड़ रहा है, उससे वह भयभीत हो गया है, वह डर गया है। लेकिन वह यह स्वीकार करने को राजी नहीं कि मैं भय के कारण हटना चाहता हूं।
🏹 ज्ञान पाने के लिए अगर अर्जुन यह कहे, तो कृष्ण पहले आदमी होंगे, जो उससे राजी हो जाएंगे। लेकिन वह फाल्स जस्टीफिकेशन, एक झूठा तर्क खोज रहा है। वह कह रहा है कि मुझे भागना है, मुझे निष्‍क्रिय होना है। और आप कहते हैं कि ज्ञान ही काफी है, तो कृपा करके मुझे कर्म से भाग जाने दें। उसका जोर कर्म से भागने में है, उसका जोर ज्ञान को पाने में नहीं है। यह फर्क समझ लेना एकदम जरूरी है, क्योंकि उससे ही कृष्ण जो कहेंगे आगे, वह समझा जा सकता है।
🏹 अर्जुन का जोर इस बात पर नहीं है कि ज्ञान पा ले, अर्जुन का जोर इस बात पर है कि इस कर्म से कैसे बच जाए। अगर सांख्य कहता है कि कर्म बेकार है, तो अर्जुन कहता है कि सांख्य ठीक है, मुझे जाने दो। सांख्य ठीक है, इसलिए अर्जुन नहीं भागता है। अर्जुन को भागना है, इसलिए सांख्य ठीक मालूम पड़ता है। और इसे, इसे अपने मन में भी थोड़ा सोच लेना आवश्यक है।
🏹 हम भी जिंदगीभर यही करते हैं। जो हमें ठीक मालूम पड़ता है, वह ठीक होता है इसलिए मालूम पड़ता है? सौ में निन्यानबे मौके पर, जो हमें करना है, हम उसे ठीक बना लेते हैं। हमें हत्या करनी है, तो हम हत्या को भी ठीक बना लेते हैं। हमें चोरी करनी है, तो हम चोरी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें बेईमानी करनी है, तो हम बेईमानी को भी ठीक बना लेते हैं। हमें जो करना है, वह पहले है, और हमारे तर्क केवल हमारे करने के लिए सहारे बनते हैं।
🏹 फ्रायड ने अभी इस सत्य को बहुत ही प्रगाढ़ रूप से स्पष्ट किया है। फ्रायड का कहना है कि आदमी में इच्छा पहले है और तर्क सदा पीछे है, वासना पहले है, दर्शन पीछे है। इसलिए वह जो करना चाहता है, उसके लिए तर्क खोज लेता है। अगर उसे शोषण करना है, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर उसे स्वच्छंदता चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। अगर अनैतिकता चाहिए, तो वह उसके लिए तर्क खोज लेगा। आदमी की वासना पहले है और तर्क केवल वासना को मजबूत करने का, स्वयं के ही सामने वासना को सिद्ध, तर्कयुक्त करने का काम करता है।
🏹 इसलिए फ्रायड ने कहा है कि आदमी रेशनल नहीं है। आदमी बुद्धिमान है नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। आदमी उतना ही बुद्धिहीन है, जितने पशु। फर्क इतना है कि पशु अपनी बुद्धिहीनता के लिए किसी फिलासफी का आवरण नहीं लेते। पशु अपनी बुद्धिमानी को सिद्ध करने के लिए कोई प्रयास नहीं करते। वे अपनी बुद्धिहीनता में जीते हैं और बुद्धिमानी का कोई तर्क का जाल खड़ा नहीं करते। आदमी ऐसा पशु है, जो अपनी पशुता के लिए भी परमात्मा तक का सहारा खोजने की कोशिश करता है—।
🏹 झेन फकीरों की मोनेस्ट्रीज में, आश्रम में एक छोटा—सा नियम है। जापान में जब भी कोई साधक किसी गुरु के पास ज्ञान सीखने आता है, तो गुरु उसे बैठने के लिए एक चटाई दे देता है। और कहता है, जिस दिन बात तुम्हारी समझ में आ जाए, उस दिन अपनी चटाई को गोल करके दरवाजे से बाहर निकल जाना। तो मैं समझ जाऊंगा, बात समाप्त हो गई। और जब तक समझ में न आए, तब तक तुम बाहर चले जाना, चटाई तुम्हारी यहीं पड़ी रहने देना। रोज लौट आना; अपनी चटाई पर बैठना, पूछना, खोजना। जिस दिन तुम्हें लगे, बात पूरी हो गई, उस दिन धन्यवाद भी मत देना। क्योंकि जिस दिन ज्ञान हो जाता है, कौन किसको धन्यवाद दे! कौन गुरु, कौन शिष्य? और जिस दिन ज्ञान हो जाता है, उस दिन कौन कहे कि मुझे ज्ञान हो गया, क्योंकि मैं भी तो नहीं बचता है। तो उल दिन तुम अपनी चटाई गोल करके चले जाना, तो मैं समझ लूंगा कि बात पूरी हो गई।
🏹 कृष्ण कहते हैं, ज्ञान ही काफी है, ऐसी सांख्य की निष्ठा है। और सांख्य की निष्ठा परम निष्ठा है। श्रेष्ठतम जो मनुष्य सोच सका है आज तक, वे सांख्य के सार सूत्र हैं। क्योंकि ज्ञान अगर सच में ही घटित हो जाए, तो जिंदगी में कुछ भी करने को शेष नहीं रह जाता है, फिर कुछ भी ज्ञान के प्रतिकूल करना असंभव है। लेकिन तब अर्जुन को पूछने की जरूरत न रहेगी; बात समाप्त हो जाती है। लेकिन वह पूछता है कि हे कृष्ण, आप कहते हैं, ज्ञान ही परम है, तो फिर मुझे इस युद्ध की झंझट में, इस कर्म में क्यों डालते हैं? अगर उसे ज्ञान ही हो जाए, तो युद्ध झंझट न होगी।
🏹 ज्ञानवान को जगत में कोई भी झंझट नहीं रह जाती। इसका यह मतलब नहीं है कि झंझटें समाप्त हो जाती हैं। इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि ज्ञानवान को झंझट झंझट नहीं, खेल मालूम पड़ने लगती है। अगर उसे ज्ञान हो जाए, तो वह यह न कहेगा कि इस भयंकर कर्म में मुझे क्यों डालते हैं? क्योंकि जिसे अभी कर्म भयंकर दिखाई पड़ रहा है, उसे ज्ञान नहीं हुआ। क्योंकि ज्ञान हो जाए तो कर्म लीला हो जाता है। ज्ञान हो जाए तो कर्म अभिनय, एक्टिंग हो जाता है। वह नहीं हुआ है। इसलिए क्या को गीता आगे जारी रखनी पड़ेगी।
🏹 सच तो यह है कि कृष्ण ने जो श्रेष्ठतम है, वह अर्जुन से पहले कहा। इससे बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। सबसे पहले कृष्ण ने सांख्य की निष्ठा की बात कही; वह श्रेष्ठतम है। साधारणत:, कोई दूसरा आदमी होता, तो अंत में कहता। दुकानदार अगर कोई होता कृष्ण की जगह, तो जो श्रेष्ठतम है उसके पास, वह अंत में दिखाता। निकृष्ट को बेचने की पहले कोशिश चलती। अंत में, जब निकृष्ट खरीदने को ग्राहक राजी न होता, तो वह श्रेष्ठतम दिखाता।
🏹 दूसरे अध्याय पर गीता खतम हो सकती थी, अगर अर्जुन पात्र होता। लेकिन अर्जुन पात्र सिद्ध नहीं हुआ। कृष्ण को श्रेष्ठ से एक कदम नीचे उतरकर बात शुरू करनी पड़ी। अगर श्रेष्ठतम समझ में न आए, तो फिर श्रेष्ठ से नीचे समझाने की वे कोशिश करते हैं। अर्जुन का सवाल बता देता है कि सांख्य उसकी समझ में नहीं पड़ा। क्योंकि समझ के बाद प्रश्न गिर जाते हैं। इसे भी खयाल में ले लें।
🏹 आमतौर से हम सोचते हैं कि समझदार को सब उत्तर मिल जाते हैं; गलत है वह बात। समझदार को उत्तर नहीं मिलते, समझदार के प्रश्न गिर जाते हैं। समझदार के पास प्रश्न नहीं बचते। असल में समझदार के पास पूछने वाला ही नहीं बचता है। असल में समझ में कोई प्रश्न ही नहीं है। ज्ञान निष्प्रश्न है, क्योंकि ज्ञान में कोई भी प्रश्न उठता नहीं। ज्ञान मौन और शून्य है, वहां कोई प्रश्न बनता नहीं। ऐसा नहीं कि ज्ञान में सब उत्तर हैं, बल्कि ऐसा कि ज्ञान में कोई प्रश्न नहीं हैं। ज्ञान प्रश्नशन्य है।
🏹 अगर सांख्य समझ में आता, तो अर्जुन के प्रश्न गिर जाते। लेकिन वह वापस अपनी जगह फिर खड़ा हो गया है। अब वह सांख्य को ही आधार बनाकर प्रश्न पूछता है। अब ऐसा दिखाने की कोशिश करता है कि सांख्य मेरी समझ में आ गया, तो अब मैं तुमसे कहता हूं कृष्ण, कि मुझे इस भयंकर युद्ध और कर्म में मत डालो। लेकिन उसका भय अपनी जगह खड़ा है। युद्ध से भागने की वृत्ति अपनी जगह खड़ी है। पलायन अपनी जगह खड़ा है। जीवन को गंभीरता से लेने की वृत्ति अपनी जगह खड़ी है।
🏹 सांख्य कहेगा कि जीवन को गंभीरता से लेना व्यर्थ है। क्योंकि जो कहेगा कि ज्ञान ही सब कुछ है, उसके लिए कर्म गंभीर नहीं रह जाते, कर्म खेल हो जाते हैं बच्चों के। सांख्य हम सब को, जो कर्म में लीन हैं, जो कर्म में रस से भरे हैं या विरस से भरे हैं, कर्म में भाग रहे हैं या कर्म से भाग रहे हैं—सांख्य की दृष्टि में हम छोटे बच्चों की तरह हैं, जो नदी के किनारे रेत के मकान बना रहे हैं, बड़े कर्म में लीन हैं। और अगर उनके रेत के मकान को धक्का लग जाता है, तो बड़े दुखी और बड़े पीड़ित हैं।
*ओशो :* 🏹 जो सबके लिए अंधेरी रात है, वह भी ज्ञानी के लिए, संयमी के लिए जागरण का क्षण है। जो निद्रा है सबके लिए, वह भी ज्ञानी के लिए जागृति है। यह महावाक्य। है। यह साधारण वक्तव्य नहीं है। यह महावक्तव्य है। इसके बहुआयामी अर्थ हैं। दो —तीन आयाम समझ लेना जरूरी है। एक तो बिलकुल सीधा, जिसको कहना चाहिए लिटरल जो। अर्थ है, वह भी इसका अर्थ है। आमतौर से गीता पर किए गए! वार्त्तिक उसके तथ्यगत अर्थ को कभी भी नहीं लेते हैं। जो कि बड़ी। ही गलत बात है। वे सदा ही उसको मेटाफर बना लेते हैं। वह सिर्फ मेटाफर नहीं है। जब यह बात कही जा रही है कि जो सबके लिए निद्रा है, वह भी संयमी और ज्ञानी के लिए जागरण है, तो इसका पहला अर्थ बिलकुल शाब्दिक है। जब आप रात सोते हैं, तब भी संयमी नहीं सोता है। इसे पहले समझ लेना जरूरी है, क्योंकि इसे कहने की हिम्मत नहीं जुटाई जा सकी है आज तक। सदा उसका अर्थ मोहरूपी निशा और और सब रूपी बातें कही गई हैं। इसका पहला अर्थ बिलकुल ही तथ्यगत है। जब आप रात सोते हैं, तब भी ज्ञानी नहीं सोता है। इसका क्या मतलब है? बिस्तर पर नहीं लेटता है! इसका क्या मतलब है? आंख बंद नहीं करता है! इसका क्या मतलब है? रात विश्राम को उपलब्ध नहीं होता है! नहीं, यह सब करता है, फिर भी नहीं सोता है। दों—तीन उदाहरण से इस बात को समझें। : बुद्ध ने आनंद को दीक्षा दी। वह उनका चचेरा भाई था और बड़ा भाई था। तो दीक्षा लेते वक्त आनंद ने कहा कि दीक्षा के बाद तो तुम गुरु और मैं शिष्य हो जाऊंगा, तो मैं तुमसे फिर कुछ कह न सकूंगा। अभी मैं तुम्हें आता दे सकता हूं, मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूं। दीक्षा लेने के पहले मैं तुम्हें दो —तीन आशाएं देता हूं, जो तुम्हें छोटे भाई की तरह माननी पड़ेगी। बुद्ध ने कहा, कहो।
🏹 आनंद ने कहा, एक तो यह कि मैं चौबीस घंटे तुम्हारे साथ रहूंगा। रात तुम सोओगे जहा, वहीं मैं भी सोऊंगा। दूसरा यह कि जब भी मैं कोई सवाल पूछूं, तुम्हें उसी वक्त उत्तर देना पड़ेगा, टाल न सकोगे। तीसरा यह कि मैं अंधेरी आधी रात में भी किसी को मिलाने ले आऊं, तो मिलना पड़ेगा, इनकार न कर सकोगे। तो ये तीन आज्ञाएं देता हूं बड़े भाई की हैसियत से। फिर दीक्षा के बाद तो मैं कुछ कह न सकूंगा। तुम्हारी आशा मेरे सिर पर होगी।बुद्ध ने ये वचन दे दिए। फिर आनंद बुद्ध के कमरे में ही सोता। दों—चार—दस दिन में ही बहुत हैरान हुआ। क्योंकि बुद्ध जिस करवट सोते हैं—जहां हाथ रखते हैं, जहा पैर रखते हैं—रात में इंचभर भी हिलाते नहीं। कभी करवट भी नहीं बदलते। हाथ जहा रखा है, वहीं रखा रहता है पूरी रात। पैर जहां रखा है, वहीं रखा रहता है पूरी रात। तो आनंद ने कहा कि यह क्या मामला है! यह कैसी नींद है! दो—चार—दस दिन, रात में कई बार उठकर उसने देखा। देखा कि वही—वही मुद्रा है, वही आसन है, वही व्यवस्था है—सब वही है। दसवें दिन उसने पूछा कि एक सवाल उठ गया है। रात में सोते ! हो या क्या करते हो? बुद्ध ने कहा, जब से अज्ञान टूटा, तब से सिर्फ शरीर सोता है, मैं नहीं सोता हूं। तो अगर करवट, तो मुझे बदलनी पड़े, मेरे बिना सहयोग के शरीर नहीं बदल सकता। कोई जरूरत नहीं बदलने की। एक ही करवट से काम चल जाता है। तो फकीर आदमी को जितने से काम चल जाए, उससे ज्यादा के उपद्रव में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसे ही चल जाता है काम। हाथ जहा रखता हूं वहीं रखे रहता हूं। हाथ सो जाता है, मैं नहीं सोता हूं। कृष्ण कहते हैं, जो सबके लिए अंधेरी निद्रा है, वह भी ज्ञानी के लिए जागरण है।
🏹 आप भी पूरे नहीं सोते हैं। क्योंकि ज्ञान का कोई न कोई कोना तो आप में भी जागा रहता है। यहां हम इतने लोग बैठे हैं, सब सो जाएं, रात कोई आदमी आकर चिल्लाए राम! सबको सुनाई पड़ेगा, लेकिन सबको सुनाई नहीं पड़ेगा। जिसका नाम राम है, वह कहेगा, कौन बुला रहा है? कान सबके हैं, सब सोए हैं। राम शब्द गूंजा है, तो सबको सुनाई पड़ा है। लेकिन जो राम है, वह कहता है, कौन बुला रहा है? रात में कौन गड़बड़ करता है? सोने नहीं देता! क्या हुआ! जरूर इसके भीतर चेतना का एक कोना इस रात में भी जागा है, पहरा दे रहा है। पहचानता है कि राम नाम है अपना।।
🏹 मां सोई है रात, तूफान आ जाप बाहर, आधी आ जाए, बादल गरजे, बिजली चमके, उसकी नींद नहीं टूटती। उसका बच्चा जरा—सा कुनकुन करे, वह फौरन हाथ रख लेती। भीतर कोई हिस्सा जागा हुआ है मां का, वह देख रहा है कि बच्चे को कोई गड़बड़ न हो जाए। और बच्चे की गड़बड़ इतनी धीमी है कि मां के एक हिस्से को जागा ही रहना होगा। आकाश में बिजली चमकती है, बादल गरजते हैं, पानी बरस रहा है, उसका कुछ सुनाई नहीं पड़ता उसे। लेकिन बच्चे की जरा—सी आवाज, उसका जरा—सा करवट लेना, उसकी धीमी—सी पुकार उसे तत्काल जगा देती है। एक हिस्सा उसका भी जागा हुआ है। पर एक हिस्सा! जरूरत के वक्त, इमरजेंसी मेजर है वह हमारा। साधारणत: हमारी पूरी चेतना डूबी रहती है अंधेरे में। कृष्य कहते हैं, ज्ञानी पुरुष नींद में भी जागा रहता है। पहला अर्थ, पहले आयाम का अर्थ, वास्तविक निद्रा में भी जागरण है। और मैं आपसे कहता हूं कि यह बहुत कठिन नहीं है। जो आदमी दिन के जागते हिस्से में बारह घंटे जागा हुआ जीएगा, वह रात में जागा हुआ सोता है। आप रास्ते पर चल रहे हैं, जागकर चलें। आप खाना खा रहे हैं, जागकर खाएं। आप किसी से बात कर रहे हैं, जागकर बोलें। सुन रहे हैं, जागकर सुनें। यह नींद—नींद, स्लीपी—स्लीपी न हो। यह सब ऐसे ही चल रहा है। एक आदमी खाना खा रहा है। हमें लगता है कि नींद में कैसे खाना खा सकता है! लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सब लोग नींद में खाना खा रहे हैं। इमरसन एक बड़ा विचारक हुआ। सुबह बैठा है। उसकी नौकरानी नाश्ता रख गई। किताब में उलझा है, तो नौकरानी ने बाधा नहीं दी। किताब से छूटेगा, तो नाश्ता कर लेगा। उसका एक मित्र मिलने आया है। वह किताब में डूबा है। नाश्ता पास है। मित्र ने सोचा, इससे बात पीछे कर लेंगे, पहले नाश्ता कर लें। मित्र ने नाश्ता कर लिया, प्लेट खाली करके बगल में सरका दी। फिर इमरसन ने कहा, अरे कब आए? मित्र को देखा, खाली प्लेट को देखा और कहा कि जरा देर से आए, मैं नाश्ता कर चुका हूं। इस आदमी ने कभी जागकर नाश्ता किया होगा? नहीं, हमने भी नहीं किया है। एक रूटीन है, जिसको हम नींद में भी कर लेते हैं। आदमी साइकिल चलाता है। पैर साइकिल चलाते रहते हैं, आदमी भीतर कुछ और चलाता रहता है। चलता चला जाता है। नींद है। सड़क के किनारे खड़े हो जाएं, लोगों को जरा चलते देखें। कोई बातचीत करता दिखाई पड़ेगा किसी से, जो मौजूद नहीं है। किसी के ओंठ हिल रहे हैं। कोई हाथ से किसी को झिड़क रहा है। कोई इशारा कर रहा है। आप बहुत हैरान होंगे कि किससे हो रहा है यह सब! नींद, नींद में चल रहे हैं। जब हम जागे हुए भी सोए हैं, तो सोए हुए जागना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूं कि जिन लोगों ने गीता के इस महावाक्य पर वक्तव्य दिए हैं, उनको खुद का कोई अनुभव नहीं है। अन्यथा यह पहला वक्तव्य चूक नहीं सकता था। उनको साफ पता नहीं है कि नींद में जागा हुआ हुआ जा सकता है। लेकिन जागे हुए ही सोए हुए आदमियों को नींद में जागने का खयाल भी नहीं उठ सकता है! तो वे इसका मेटाफोरिकल अर्थ करते हैं। वह अर्थ ठीक नहीं है। जो आदमी दिन में जागकर चलेगा, उठेगा, बैठेगा, वह रात में भी जागा हुआ सोएगा। महावीर ने कहा है—अजीब बात कही है—महावीर ने कहा है, साधुओ! जागकर चलना, जागकर उठना, जागकर बैठना। सब ठीक है। लेकिन आखिर में महावीर कहते हैं, जागकर सोना। पागलपन की बातें कर रहे हैं! तो फिर सोएंगे काहे के लिए! जागकर सोना, जागते रहना और देखना कि नींद कब आई। आप कितनी दफे सोए हैं, कभी नींद को आते देखा? जिंदगीभर सोए, रोज सोए। आदमी साठ साल जीता है, तो बीस साल सोता है। आठ घंटे सोए अगर, तो बीस साल सोने में चले जाते हैं। जिंदगी का एक तिहाई सोते हैं। बीस साल सोकर भी कभी आपको पता है, नींद कब आती है? कैसे आती है? नींद क्या है?
🏹 कैसा अदभुत है यह मामला! बीस साल जिस अनुभव से गुजरते हैं, उस अनुभव की कोई भी पहचान नहीं है! रोज सोते हैं। लेकिन कोई आपसे पूछे कि नींद क्या है? व्हाट इज दि स्लीप? कैसे आती है? आते वक्त क्या उसकी शकल है, क्या उसका रूप है? कैसे उतरती है? जैसे सांझ उतरती है अंधकार की, सूरज डूबता है, आपके भीतर क्या उतरता है नींद में? आप कहेंगे कि कुछ पता नहीं है। क्योंकि जब तक जागे रहते हैं, तब तक नींद नहीं आती। जब नींद आ जाती है, उसके पहले तो सो गए होते हैं। सुबह उठते हैं रोज। कभी देखा है कि नींद का टूटना क्या है, फिनामिनल? नींद कैसे टूटती है? क्या होता है नींद के टूटने में? आप कहते हैं, कुछ पता नहीं। जब तक नींद नहीं टूटती, तब तक हम नहीं होते। जब नींद टूट जाती है, तब टूट ही चुकी होती है। कोई हमें पता नहीं। कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी जागकर सोता है।और जिस व्यक्ति ने अपनी नींद को जागकर देख लिया, वही व्यक्ति अपनी मृत्यु को भी जागकर देख सकता है, अन्यथा नहीं देख सकता है। इसलिए इस सूत्र को मैं महावाक्य कहता हूं।
🏹 मौत तो कल आएगी, नींद तो आज ही आएगी। रात नींद को देखते हुए सोए। आज, कल, महीना, दो महीना, तीन महीना— रोज सोते वक्त एक ही प्रार्थना मन में, एक ही भाव मन में आए कि उसे मैं देखूं। जागे रहें, जागे रहें, जागे रहें। देखते रहें, देखते रहें। आज चूकेंगे, कल चूकेंगे, परसों चूकेंगे। महीना, दो महीना, तीन महीना—अचानक किसी दिन आप पाएंगे कि नींद उतर रही है और आप देख रहे हैं। और जिस दिन आप नींद को उतरते देख लेंगे, उस दिन कृष्ण का यह महावाक्य समझ में आएगा; उसके पहले समझ में नहीं आ सकता है। यह इसका वास्तविक अर्थ है। इसका जो मेटाफोरिकल अर्थ है, वह भी आपसे कहूं। वह भी है, लेकिन वह नंबर दो का मूल्य है उसका। नंबर एक का मूल्य इसी का है। वह भी है। लेकिन वह तो और बहुत—सी बातों में भी कह दिया गया है। उसको कहने के लिए इस वाक्य को कहने की कोई भी जरूरत न थी। वह दूसरा जो मोह—निशा, उसकी तो बहुत चर्चा हो गई। वह जो विषयों की नींद है, वह जो वासना की नींद है, तो उसकी तो काफी चर्चा हो गई है। और कृष्ण जैसे लोग एक शब्द भी व्यर्थ नहीं बोलते हैं। एक शब्द पुनरुक्त नहीं करते हैं। अगर पुनरुक्ति दिखती हो, तो आपकी समझ में भूल और गलती होती है। कृष्ण जैसे लोग, दे नेवर रिपीट। क्योंकि रिपीट का कोई सवाल नहीं है। दोहराने की कोई जरूरत नहीं है।क्या आपको पता है कि कौन लोग दोहराते हैं! सिर्फ वे ही लोग दोहराते हैं, जिनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। दूसरा आदमी नहीं दोहराता। जिसने एक बात पूरे विश्वास से कह दी पूरी तरह जानकर, बात खत्म हो गई। तो कृष्ण दोहरा नहीं सकते। इसलिए मैं कहता है कि जो आम व्याख्या की गई है कि जहा कामी आदमी कामवासना में, मोह—निद्रा में, विषयों की नींद में, अंधेरे में डूबा रहता है, वहां संयमी आदमी जागा रहता है। इसको दोहराने के लिए इस वाक्य की बहुत जरूरत नहीं है। लेकिन वह अर्थ करें, तो बुरा नहीं है। लेकिन पहला अर्थ पहले समझ लें। ही, दूसरा अर्थ है। एक तंद्रा का घेरा, कहना चाहिए एक हिम्मोटिक ऑस, हमारे व्यक्तित्व में अटका हुआ है। जब आप चलते हैं, तो आपके चारों तरफ नींद का एक घेरा चलता है। जब जागा हुआ पुरुष चलता है, तब उसके पास भी चारों तरफ एक जागरण का एक घेरा चलता है। यह जो हमने फकीरों—नानक और कबीर और राम और कृष्ण और बुद्ध और महावीर के आस—पास, उनके चेहरे के पास एक गोल घेरा बनाया है, यह फोटोग्राफिक ट्रिक नहीं है। यह सिर्फ एक मिथ नहीं है। जागे हुए व्यक्ति के आस—पास प्रकाश का एक उज्ज्वल घेरा चलता है। और जो लोग भी अपने भीतर के प्रकाश को देखने में समर्थ होते हैं, वे दूसरे के ऑस को भी देखने में समर्थ हो जाते हैं। जिन लोगों को भीतर अपने प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है, वे उस आदमी के चेहरे के आस—पास प्रकाश के गोल घेरे को तत्काल देख लेते हैं। ही, आपको नहीं दिखता, क्योंकि आपको उस तरह के सूक्ष्म प्रकाश का कोई भी अनुभव नहीं है। तो जैसे महावीर और बुद्ध और कृष्ण के चेहरे के आस—पास एक गोल वर्तुल चलता है जागरण का, रोशनी का, ऐसे ही हम सब सोए हुए आदमियों के आस—पास एक गोल वर्तुल चलता है अंधकार का, निद्रा का। वह भी आपको दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि उसका पता भी तब चलेगा, जब प्रकाश दिखाई पड़े। तब आपको पता चलेगा कि जिंदगीभर एक अंधेरे का गोल घेरा भी आपके पास चलता था। पता तो पहले प्रकाश का चलेगा, तभी अंधकार का बोध होगा। उसके साथ ही हम पैदा होते हैं। उससे इतने निकट और परिचित होते हैं कि वह दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन मैं देखता हूं कि रास्ते पर दो आदमी चल रहे हों, तो दोनों के पास का चलने वाला घेरा अलग होता है। रंगों—रंगों के फर्क होते हैं, शेड के फर्क होते हैं। अंधेरे और सफेदी के बीच में बहुत से ग्रे कलर होते हैं। लेकिन साधारणत: सोए आदमी के पास, सौ में से निन्यानबे आदमियों के पास नींद का एक वर्तुल चलता है, एक स्लीपी वर्तुल चलता है। वैसा आदमी जहां जाता है, उसके साथ उसकी नींद भी जाती है। वह जो भी छूता है, उसे नींद में छूता है। वह जो भी करता है, उसे नींद में करता है। वह जो भी बोलता है, नींद में बोलता है। कभी आपने सोचा है कि आप अपने वक्तव्यों के लिए कितनी बार नहीं पछताए हैं! पछताए हैं। लेकिन कभी आपको पता है कि आपने ही बोला था—होश में! पति घर आया है और एक शब्द पत्नी बोल गई है और कलह शुरू हो गई है। और वह जानती है कि यह शब्द रोका जा सकता था। क्योंकि यह शब्द पचीस दफे, बोला जा चुका है और इस शब्द के आस—पास इसी तरह की कलह पचीस बार हो चुकी है। फिर यह आज क्यों बोला गया? नींद में बोल गई, फिर बोल गई। कल फिर बोलेगी, परसों फिर बोलेगी। वह नींद चलेगी। वह रोज वही बोलेगी और रोज वही होगा। पति भी रोज वही उत्तर देगा। अगर एक पति-पत्नी को सात दिन ठीक से देख लिया जाए, तो उनकी पिछली जिंदगी और आगे की सारी जिंदगी की कथा लिखी जा सकती है कि पीछे क्या हुआ और आगे क्या होगा। क्योंकि यही होगा। इसकी पुनरुक्ति होती रहेगी। ये नींद में चलते हुए लोग-वही क्रोध, वही काम, वही सब, वही दुख, वही पीड़ा, वही चिंता-सब वही। रोज उठते हैं और वही दोहराते हैं। जैसे सब तय है, बंधी हुई मशीन की तरह। बस, रोज अपनी मशीन पर जम जाते हैं और फिर दोहराते हैं। यह नींद है। यह कृष्ण का दूसरा अर्थ है। जागा हुआ पुरुष जो भी करता है, वह नींद में करने वाले आदमी जैसा उसका व्यवहार नहीं है। क्या फर्क पड़ेगा उसके व्यवहार में? तो उन्होंने इंगित दिए हैं कि नींद से भरा हुआ आदमी मैं के और अहंकार के आस-पास जीएगा। उसका सब कुछ अहंकार से भरा होगा।
🏹 कभी आपने खयाल किया है, आईने के सामने खड़े होकर जो तैयारी आप कर रहे हैं, वह आपकी तैयारी है कि अहंकार की तैयारी है! किसकी तैयारी कर रहे हैं? अहंकार की तैयारी कर रहे हैं। बाहर निकलते हैं, तो झाड़-ब्लू के साफ, रीढ़ सीधी कर लेते हैं। आंखें तेज हो जाती हैं। या तो सुरक्षा में लग जाते हैं या आक्रमण में लग जाते हैं। चल पड़े, नींद वाला आदमी निकला घर से बाहर, उपद्रव संभावित है, कि कुछ होगा अब। अब यह कुछ न कुछ करेगा। और सारे लोग अपने घरों के बाहर निकल रहे हैं। ये कुछ न कुछ करेंगे। अमेरिका में अभी कार के एक्सिडेंट्स का जो सर्वे हुआ है, उससे पता चला है कि पचहत्तर प्रतिशत कार की दुर्घटनाएं भौतिक नही, मानसिक घटनाएं हैं। पागलपन की बात मालूम होती है न! कार की दुर्घटना और मानसिक! कार का भी कोई माइंड है, कार का भी कोई मन है कि कार भी कोई मन से दुर्घटना करती है! कार का नहीं है, ड्राइवर का है, वह जो सारथी बैठे रहते हैं भीतर।
🏹 कभी आपको पता है कि जब आप क्रोध में होते हैं, तो कार का एक्सेलेरेटर जोर से दबता है-नींद में, होश में नहीं। जल्दी आपको कहीं पहुंचना नहीं है। लेकिन चित्त क्रोध से भरा है। किसी चीज को दबाना चाहता है। इसकी फिक्र नहीं कि किसको दबा रहे, हैं। एक्सेलेरेटर को ही दबा रहे हैं। अब एक्सेलेरेटर से कोई झगड़ा नहीं है। अब एक्सेलेरेटर को दबाइएगा क्रोध में, तो खतरा पक्का है। क्योंकि एक तो नींद में दबाया जा रहा है। आपको पता ही नहीं है कि क्यों दबा रहे हैं एक्सेलेरेटर को। पता होना चाहिए कि क्यों दबा रहे हैं, कहां दबा रहे हैं, कितनी भीड़ है, कितने लोग हैं, कितनी कारें दौड़ रही हैं। आपको कुछ पता नहीं है।
🏹 आप एक्सेलेरेटर को नहीं दबा रहे हैं। कोई अपनी पत्नी के सिर पर पैर दबा रहा है, कोई अपने बेटे के, कोई अपने बाप के, कोई अपने मालिक के। पता नहीं वह एक्सेलेरेटर किन-किन के लिए काम कर रहा है। पता नहीं कौन एक्सेलेरेटर उस वक्त बना हुआ है। दबाए जा रहे हैं। अब यह आदमी जो नींद में एक्सेलेरेटर दबा रहा है, इस आदमी को सड़क दिखाई पड़ रही होगी!
🏹 इसकी हालत ठीक वैसी है, मैंने सुना है, वर्षा हो रही है और एक आदमी अपनी कार चला रहा है। जोर से वर्षा हो रही है, लेकिन वह आदमी वाइपर नहीं चला रहा है कार के। तो उसकी पत्नी उससे कहती है, क्या कर रहे हो! जैसा कि पत्नियां आमतौर से ड्राइवर को गाइड करती रहती हैं। पति चलाता है, पत्नियां चलवाती हैं। वे पूरे वक्त बताती रहती हैं कि यह करो, यह करो।
🏹 पूछा, क्यों नहीं चला रहे हैं वाइपर? तो उसने कहा, कोई फायदा नहीं है, क्योंकि चश्मा तो मैं घर ही भूल आया हूं। वैसे ही नहीं दिखाई पड़ रहा है कुछ। पानी गिर रहा है कि नहीं गिर रहा है, इससे क्या मतलब है!
🏹 अब यह जो आदमी है, वह जो एक्सेलेरेटर को क्रोध में दबा रहा है, वह भी अंधा है। उसको भी कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है कि बाहर क्या हो रहा है। पचहत्तर प्रतिशत दुर्घटनाएं मानसिक घटनाएं हैं। यह नींद है।
🏹 इस नींद में हम उलटा भी करते हैं। वह तीसरा आयाम है। फिर हम आगे बढ़े। एक तीसरा अर्थ भी है; नींद का कृत्य हमेशा, जो आप करते हैं और जो होता है, उसका आपको कोई खयाल नहीं होता। जो आप करते हैं, उससे ही होता है। लेकिन जब होता है, तब आप पछताते हैं कि यह कैसे हो गया! क्योंकि हमने तो यह कभी न किया था। एक स्त्री सज रही है, आईने के सामने सज रही है। अब उसे पता नहीं है कि सजकर वह क्या कर रही है। मैं सज रही हूं और कुछ भी नहीं कर रही! लेकिन वह सज-धजकर सड़क पर आ गई है। उसने चुस्त कपड़े पहन रखे हैं। अब उसको पता नहीं कि वह धक्का निमंत्रित कर रही है। कोई आदमी धक्का मारेगा। जब वह धक्का मारेगा, तब वह कहेगी कि बहुत ज्यादती हो रही है। वह स्त्री कहेगी, बहुत ज्यादती हो रही है, अन्याय हो रहा है, अनीति हो रही है। लेकिन सब तैयारी करके आई है वह। पर वह तैयारी नींद में की गई थी, उसे कोई काज—इफेक्ट दिखाई नहीं पड़ता कि ये इतने चुस्त कपड़े, इतने बेढंगे कपड़े, इतनी सजावट किसी को भी धक्का मारने के लिए निमंत्रण है। और बड़े मजे की बात है, अगर उसको कोई धक्का न दे और कोई न देखे, तो भी दुखी लौटेगी कि बेकार गई, सब मेहनत बेकार गई। किसी ने देखा ही नहीं! सड़क पर कोई इसे न देखे, कोई इसको ले ही न, कोई अटेंशन न दे, तो यह ज्यादा दुखी लौटेगी। धक्क दे, तो भी दुखी लौटेगी। क्या हो रहा है यह! मैंने सुना है कि एक बच्चे ने अपने बाप को खबर दी कि मैंने पांच मक्खियां मार डाली हैं। उसके बाप ने कहा, अरे! और उसने कहा कि तीन नर थे, दो मादाएं थीं। उसके बाप ने कहा कि हद कर रहा है, तूने कैसे पता लगाया? तो उसने कहा कि दो मक्खियां आईने—आईने पर ही बैठती थीं। समझ गया कि स्त्रिया होनी चाहिए! यह जो नींद में सब चल रहा है, इसमें हम ही कारण होते हैं और जब कार्य आता है, तब हम चौंककर खड़े हो जाते हैं कि यह मैंने नहीं किया! अगर हम नींद में न हों, तो हम फौरन समझ जाएंगे, यह मेरा किया हुआ है। यह धक्का मेरा बुलाया हुआ है। यह धक्का ऐसे ही नहीं आ गया है। इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, एक्सिडेंटल नहीं है। सब चीजों की हम व्यवस्था करते हैं। लेकिन फिर व्यवस्था जब पूरी हो जाती है, तब पछताते हैं कि यह क्या हो गया! यह क्या हो रहा है? यह भी नींद का अर्थ है। संयमी, ज्ञानी इस भांति कभी नहीं सोता, जागा ही रहता है। स्वभावत:, जागकर वह वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा सोया आदमी करता है। उसका मैं कभी केंद्र में नहीं होता। मैं सदा नींद के ही केंद्र में होता है। समझ लें कि नींद का केंद्र मैं है। न—मैं, ईगोलेसनेस, निरअहंकार भाव, जागरण का केंद्र है। यह बड़े मजे की बात है। इसको अगर हम ऐसा कहें तो बिलकुल कह सकते हैं कि सोया हुआ आदमी ही होता है, जागा हुआ आदमी होता नहीं। यह बड़ा उलटा वक्तव्य लगेगा। सोया हुआ आदमी ही होता है—मैं। जागा हुआ आदमी नहीं होता है—न—मैं। जागरण आदमी के अहंकार का विसर्जन है। निझ आदमी के अहंकार का संग्रहण है, कनसनट्रेशन है, केंद्रीकरण है।
क्योंकि, जल में वायु नाव को जैसे कंपित कर देता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इंद्रियों के बीच में जिस इंद्रिय के साथ मन रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरूष की प्रज्ञा का हरण कर लेती है। इससे हे महाबाहो, जिस पुरूष की इंद्रियां सब प्रकार इंद्रियों के विषयों से वश में की हुई होती है, उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है।

*ओशो :* 🏹 जैसे नाव चलती हो और हवा की आंधियों के झोंके उस नाव को डांवाडोल कर देते हैं, आंधिया तेज हों, तो नाव डूब भी जाती है, ऐसे ही कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जिसके चित्त की शक्ति विषयों की तरफ विक्षिप्त होकर भागती है, उसका मन आधी बन जाता है, उसका मन तूफान बन जाता है। उस आधी और तूफान में शाति की, समाधि की, स्वयं की नाव डूब जाती है। लेकिन अगर आंधिया न चलें, तो नाव डगमगाती भी नहीं। अगर आंधिया बिलकुल न चलें, तो नाव के डूबने का उपाय ही नहीं रह जाता। ठीक ऐसे ही मनुष्य का चित्त जितने ही झंझावात से भर जाता है वासनाओं के, जितने ही जोर से चित्त की ऊर्जा और शक्ति विषयों की तरफ दौड़ने लगती है, वैसे ही जीवन की नाव डगमगाने लगती। है और डूबने लगती है।ज्ञानी पुरुष इस सत्य को देखकर, इस सत्य को पहचानकर यह चित्त की वासना की आंधियों को नहीं दौड़ाता। क्या मतलब है? रोक लेता है? लेकिन आंधिया अगर रोकी जाएंगी, तो भी आंधिया ही रहेंगी। और दौड़ रही आंधिया शायद कम संघातक हों, रोकी गई आंधिया शायद और भी संघातक हो जाएं। तो क्या तानी पुरुष आंधियों को रोक लेता है, रिस्ट्रेन करता है? अगर रोकेगा, तो भी आंधिया आंधिया ही रहेंगी और रुकी आंधियों का वेग और भी बढ़ जाएगा। तो क्या करता है इतनी पुरुष? यह बहुत मजे की और समझने की बात है कि आंधिया रोकनी नहीं पड़ती, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। रोकनी नहीं पड़ती, सिर्फ चलानी पड़ती हैं। आप न चलाएं, तो रुक जाती हैं। क्योंकि आंधिया कहीं बाहर से नहीं आ रही हैं, आपके ही सहयोग, कोआपरेशन से आ रही हैं। मैं इस हाथ को हिला रहा हूं। इस हाथ को हिलने से मुझे रोकना नहीं पड़ता। जब रोकता हूं, तो उसका कुल मतलब इतना होता है कि अब नहीं हिलाता हूं। कोई हाथ अगर बाहर से हिलाया जा रहा हो, तो मुझे रोकना पड़े। मैं ही हिला रहा हूं, तो रोकने का क्या मतलब होता है! शब्द में रोकना क्रिया बनती है, उससे भ्रांति पैदा होती है। यथार्थ में, वस्तुत: रोकना नहीं पड़ता, सिर्फ चलाता नहीं हूं कि हाथ रुक जाता है।
🏹 एक झेन फकीर हुआ, उसका नाम था रिझाई। एक आदमी उसके पास गया और उसने कहा कि मैं कैसे रोकू? उस फकीर ने कहा, गलत सवाल मेरे पास पूछा तो ठीक नहीं होगा। यह डंडा देखा है! रिंझाई एक डंडा पास रखता था। और वह दुनिया बहुत कमजोर है, जहां फकीर के पास डंडा नहीं होता। कृष्ण कुछ कम डंडे की बात नहीं करते! एक मित्र कल मुझसे कह रहे थे कि मेरी हालत भी अर्जुन जैसी है। आप मुझे सम्हालना! मेरे मन में हुआ कि उनसे कहूं कि अगर कृष्ण जैसा एक दफा तुमसे कह दूर महामूर्ख! तुम दुबारा लौटकर न आओगे। तुम आओगे ही नहीं। अर्जुन होना भी आसान नहीं है वह कृष्ण उसको डंडे पर डंडे दिए चले जाते हैं। भागता नहीं है। संदेह है, लेकिन निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है। संदेह है, तो सवाल उठाता है। निष्ठा में भी कोई कमी नहीं है, इसलिए भागता भी नहीं है। रिंझाई ने कहा कि देखा है यह डंडा! झूठे गलत सवाल पूछेगा, हो सिर तोड़ दूंगा। उस आदमी ने कहा, क्या कहते हैं आप! सिर मेरा वैसे ही अपनी वासनाओं से टूटा जा रहा है। आप मुझे कोई तरकीब रोकने की बताएं। रिंझाई ने कहा, रोकने की बात नहीं है, मैं तुझसे यह पूछता हूं किस तरकीब से वासनाओं को चलाता है? क्योंकि तू ही चलाने वाला है, तो रोकने की तरकीब पूछनी पड़ेगी!
🏹 एक आदमी दौड़ रहा है और हमसे पूछता है, कैसे रुके? रुकना पड़ता है! सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है। रुकना नहीं पड़ता है, सिर्फ नहीं दौड़ना पड़ता है। हां, कोई उसको घसीट रहा हो, कोई उसकी गरदन में बैल की तरह रस्सी बांधकर खींच रहा हो, तब भी कोई सवाल है। कोई। उसके पीछे से उसको धक्के दे रहा हो, तब भी कोई सवाल है। न! उसे कोई घसीट रहा है, न कोई पीछे से धक्के दे रहा है, वह आदमी दौड़ रहा है। और कहता है, मैं कैसे रुकूं? तो उसे इतना ही कहना पड़ेगा, तू गलत ही सवाल पूछ रहा है। दौड़ भी तू ही रहा है, कैसे रुकने की बात भी तू ही पूछ रहा है। निश्चित ही तू रुकना नहीं चाहता, इसीलिए पूछ रहा है। जो लोग रुकना नहीं चाहते, वे यही पूछते रहते हैं, कैसे रुके? इसी में समय गंवाते रहते हैं। वे पूछते हैं, हाऊ टु डू इट? करना नहीं चाहते हैं। क्योंकि मजा यह है कि वासना को कैसे चलाएं, इसे पूछने आप कभी किसी के पास नहीं गए, बड़े मजे से चला रहे हैं। तो कृष्ण कह रहे हैं कि जो इन आंधियों को नहीं चलाता है—रोक लेता है नहीं—नहीं चलाता है। हमारा कोआपरेशन मांगती है वासना। आपने कोई ऐसी वासना देखी है, जो आपके बिना सहयोग के इंचभर सरक जाए! कभी बिना आपके सहयोग के आपके भीतर कोई भी वासना सरकी है इंचभर! तो फिर जरा लौटकर देखना। जब वासना सरके, तो खड़े हो जाना और कहना कि मेरा सहयोग नहीं, अब तू चल। और आप पाएंगे, वहीं गिर गई—वही—इंचभर भी नहीं जा सकती। आपका कोआपरेशन चाहिए। एक मेरे मित्र हैं, उनको बड़ा क्रोध आता है। बड़े मंत्र पढ़ते हैं, बड़ी प्रार्थनाएं करते हैं, मंदिर जाते हैं और वहा से और क्रोधी होकर लौटते हैं। क्रोध नहीं जाता। बस, उनकी वही परेशानी है कि क्रोध! पर मैंने उनसे कहा कि तुम ही क्रोध करते हो कि कोई और करता है? उन्होंने कहा कि मैं ही करता हूं, लेकिन फिर भी जाता नहीं। कैसे जाए? मैंने कहा कि अब यह सब छोड़ो। यह कागज मैं तुम्हें लिखकर देता हूं। कागज लिखकर उन्हें दे दिया। उसमें मैंने बड़े—बड़े अक्षरों में लिख दिया कि अब मुझे क्रोध आ रहा है। मैंने कहा, इसे खीसे में रखो और जब भी क्रोध आए, तो इसे देखकर पढ़ना और फिर खीसे में रखना, और कुछ मत करना। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? मैं बड़े —बड़े ताबीज भी बांध चुका! मैंने कहा, छोड़ो ताबीज तुम। तुम इसको खीसे में रखो। पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना। पंद्रह दिन बाद नहीं, वे पांच ही दिन बाद आ गए। और कहने लगे कि क्या जादू है? क्योंकि जैसे ही मैं इसको पढ़ता हूं कि अब मुझे क्रोध आ रहा है, पता नहीं भीतर क्या होता है—गया! कोआपरेशन नहीं मिल पाता। एक सेकेंड को कोआपरेशन चूक जाए—गया। फिर तो वे कहने लगे, अब तो खीसे तक अंदर हाथ भी नहीं लगाना पड़ता। इधर हाथ गया कि अक्षर खयाल आए कि अब क्रोध आ रहा है; बस कोई चीज एकदम से बीच में जैसे फ्लाप! कोई चीज एकदम से गिर जाती है।
🏹 वासना सहयोग मांगती है आपका। निर्वासना सिर्फ असहयोग मांगती है। निर्वासना के लिए कुछ करना नहीं है, वासना के लिए जो किया जा रहा है, वही भर नहीं करना है। तो रिंझाई ने मुट्ठी बांध ली उस आदमी के सामने और कहा कि देख, यह मुट्ठी बंधी है, अब मुझे मुट्ठी को खोलना है। मैं क्या करूं? उस आदमी ने कहा कि क्या फिजूल की बातें पूछते हैं! बांधिए मत, मुट्ठी खुल जाएगी। बांधिए मत! क्योंकि बांधना पड़ता है, बांधना एक काम है। खोलना काम नहीं है। बांधने में शक्ति लग रही है, खोलने में कोई शक्ति नहीं लगती। न बांधिए तो मुट्ठी खुली रहती है, बांधिए तो बंधती है। वासना शक्ति मांगती है, न दीजिए शक्ति, तो निर्वासना फलित हो जाती है। ऐसा झंझावात से मुक्त हुआ चित्त स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, हे महाबाहो, जो स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाता है, वह सब कुछ पा लेता है।













🏹 लेकिन अपने से कोई कैसे टूट सकता है? अपने से कोई कैसे अयुक्त हो सकता है? अपने से टूटना तो असंभव है। अगर हम अपने से ही टूट जाएं, इससे बड़ी असंभव बात कैसे हो सकती है! क्योंकि अपने का मतलब ही यह होता है कि अगर मैं अपने से ही टूट जाऊं,तो मेरे दो अपने हो गए—एक जिससे मैं टूट गया, और एक जो मैं टूटकर हूं। अपने से टूटना हो नहीं सकता।
🏹 आप रात सोए। सपना देखा कि अहमदाबाद में नहीं, कलकत्ते में हूं। कलकत्ते में चले नहीं गए। ऐसे सोए—सोए कलकत्ता जाने का अभी तक कोई उपाय नहीं है। अपनी खाट पर अहमदाबाद में ही पड़े हैं। लेकिन स्वप्न देख रहे हैं कि कलकत्ता पहुंच गए। सुबह जल्दी काम है अहमदाबाद में। अब चित्त बड़ा घबड़ाया, यह तो कलकत्ता आ गए! सुबह काम है। अब वापस अहमदाबाद जाना है! अब सपने में लोगों से पूछ रहे हैं कि अहमदाबाद कैसे जाएं! ट्रेन पकड़े, हवाई जहाज पकड़े, बैलगाड़ी से जाएं। जल्दी पहुंचना है, सुबह काम है और यह रात गुजरी जाती है।
🏹 आपकी घबड़ाहट उचित है, अनुचित तो नहीं। अहमदाबाद में काम है, कलकत्ते में हैं। बीच में फासला बड़ा है। सुबह करीब आती जाती है। वाहन खोज रहे हैं। लेकिन क्या अहमदाबाद आने के लिए वाहन की जरूरत पड़ेगी? क्योंकि अहमदाबाद से आप गए नहीं हैं क्षणभर को भी, इंचभर को भी। न भी मिले वाहन, तो जैसे ही नींद टूटेगी, पाएंगे कि लौट आए। मिल जाए, तो भी पाएंगे कि लौट आए। असल में गए ही नहीं हैं, लौट आना शब्द ठीक नहीं है। सिर्फ गए के भ्रम में थे।
🏹 तो जब कृष्ण कहते हैं, अयुक्त और युक्त, तो वास्तविक फर्क नहीं है। कोई डयुक्त तो होता नहीं कभी, सिर्फ अयुक्त होने के भ्रम में होता है, स्वप्न में होता है। सिर्फ एक ड्रीम क्रिएशन है, एक स्वप्न का भाव है कि अपने से अलग हो गया हूं। युक्त पुरुष वह है, जो इस स्वप्न से जाग गया और उसने देखा कि मैं तो अपने से कभी भी अलग नहीं हुआ हूं।
🏹 एक आदमी रो रहा है अपने बेटे के पास बैठा हुआ—मेरा बेटा बीमार है और चिकित्सक कहते हैं, बचेगा नहीं, मर जाएगा। रो रहा है, छाती पीट रहा है। उसके प्राणों पर बडा संकट है। तभी हवा का एक झोंका आता है और टेबल से एक कागज उड़कर उसके पैरों पर नीचे गिर जाता है। वह उसे यूं ही उठाकर देख लेता है। पाता है कि उसकी पत्नी को लिखा किसी का प्रेम—पत्र है। पता चलता है पत्र को पढ़कर कि बेटा अपना नहीं है, किसी और से पैदा हुआ है। सब भावना विदा हो गई। कोई भावना न रही। दवाई की बोतलें हटा देता है। जहर की बोतलें रख देता है। रात एकांत में गरदन दबा देता है। वही आदमी जो उसे बचाने के लिए कह रहा था, वही आदमी गरदन दबा देता है।
🏹 टाल्सटाय ने एक कहानी लिखी है। लिखा है कि एक आदमी का बेटा बहुत दिन से घर के बाहर चला गया। बाप ही क्रोधित हुआ था, इसलिए चला गया था। फिर बाप का होने लगा। बहुत परेशान था। अखबारों में खबर निकाली, संदेशवाहक भेजे। फिर उस बेटे का पत्र आ गया कि मैं आ रहा हूं। आपने बुलाया, तो मैं आता हूं। मैं फला—फलां दिन, फलां —फलां ट्रेन से आ जाऊंगा।
🏹 धर्मशाला में कोई जगह खाली नहीं है। धर्मशाला के मैनेजर को उसने कहा कि कोई भी जगह तो खाली करवाओ ही। वह जमींदार है। तो उसने कहा कि अभी एक कोई भिखमंगा—सा आदमी आकर ठहरा है इस कमरे में—उसको निकाल बाहर कर दें? उसने कहा कि निकाल बाहर करो। उसे पता नहीं कि वह उसका बेटा है। उसे निकाल बाहर कर दिया गया। वह अपने कमरे में आराम से…। उसने आदमी भेजे कि गांव में खोजो।
🏹 वह बेटा बाहर सीढ़ियों पर बैठा है। सर्द रात उतरने लगी। उस गरीब लड़के ने बार—बार कहा कि मुझे भीतर आ जाने दें, बर्फ पड़ रही है और मुझे बहुत दर्द है पेट में। पर उसने कहा कि यहां गड़बड़ मत करो; भाग जाओ यहां से, रात मेरी नींद हराम मत कर देना। फिर रात पेट की तकलीफ से वह लड़का चीखने लगा। तो उसने नौकरों से उसे उठवाकर सड़क पर फिंकवा दिया।
🏹 फिर सुबह वह मर गया। सुबह जब वह जमींदार उठा, तो वह लडका मरा हुआ पड़ा था। लोगों की भीड़ इकट्ठी थी। लोग कह रहे थे, कौन है, क्या है, कुछ पता लगाओ। किसी ने उसके खीसे मे, खोज—बीन की तो चिट्ठी मिल गई। तब तो उन्होंने कहा कि अरे, वह जमींदार जिसको खोज रहा है, यह वही है। यह जमींदार को लिखी गई चिट्ठी—पत्री, यह अखबारों की कटिंग! यह उसका लड़का है।
🏹 वह जमींदार बाहर बैठकर अपना हुक्का पी रहा है। जैसे ही उसने सुना कि मेरा लड़का है, एकदम भावना आ गई। अब वह छाती पीट रहा है, अब वह रो रहा है। अब उस लड़के को—मरे को—कमरे के अंदर ले गया है। जिंदा को रात नहीं ले गया। मरे को दिन में कमरे के अंदर ले गया। अब उसकी सफाई की जा रही है—मरे पर। मरे को नए कपड़े पहनाए जा रहे हैं! वह जमींदार का बेटा है। अब उसको घर ले जाने की तैयारी चल रही है। और रात उसने कई बार प्रार्थना की, मुझे भीतर आने दो, तो उसको नौकरों से सड़क पर फिंकवा दिया। यह भावना है?
🏹 टाल्सटाय ने जब यह कहानी लिखी, तो उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि यह कहानी मेरी एक अर्थों में आटोबायोग्राफी भी है। यह मेरा आत्मस्मरण भी है। क्योंकि खुद टाल्सटाय शाही परिवार का था। उसने लिखा है, मेरी मां मैं समझता था बहुत भावनाशील है। लेकिन यह तो मुझे बाद में उदघाटन हुआ कि उसमें भावना जैसी कोई चीज ही नहीं है। क्यों समझता था कि भावना थी? क्योंकि थिएटर में उसके चार—चार रूमाल भीग जाते थे आंसुओ से। जब नाटक चलता और कोई दुख, ट्रेजेडी होती, तो वह ऐसी धुआंधार रोती थी कि नौकर रूमाल लिए खड़े रहते—शाही घर की लड़की थी—तत्काल रूमाल बदलने पड़ते थे। चार—चार, छह—छह, आठ— आठ रूमाल एक नाटक, एक थिएटर में भीग जाते। तो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं उसके बगल में बैठकर देखा करता था, मेरी मां कितनी भावनाशील! लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे पता चला कि उसकी बग्घी बाहर छह घोडों में जुती खड़ी रहती थी और आशा थी कि कोचवान बग्घी पर ही बैठा रहे। क्योंकि कब उसका मन हो जाए थिएटर से जाने का, तो ऐसा न हो कि एक क्षण को भी कोचवान ढूंढना पड़े। बाहर बर्फ पड़ती रहती और अक्सर ऐसा होता कि वह थिएटर में नाटक देखती, तब तक एक—दो कोचवान मर जाते। उनको फेंक दिया जाता, दूसरा कोचवान तत्काल बिठाकर बग्घी चला दी जाती। वह औरत बाहर आकर देखती कि मुरदे कोचवान को हटाया जा रहा है और जिंदा आदमी को बिठाया जा रहा है। और वह थिएटर के लिए रोती रहती, वह थिएटर में जो ट्रेजेडी हो गई! तो टाल्सटाय ने लिखा है कि एक अर्थ में यह कहानी मेरी आटोबायोग्राफिकल भी है, आत्म—कथ्यात्मक भी है। ऐसा मैंने अपनी आंख से देखा है। तब मुझे पता चला कि भावना कोई और चीज होगी। फिर यह चीज भावना नहीं है।
🏹 जिसको हम भावना कहते हैं, कृष्ण उसको भावना नहीं कह रहे। भावना उठती ही उस व्यक्ति में है, जो अपने से संयुक्त है, जो अपने में युक्त है। युक्त यानी योग को उपलब्ध, युक्त यानी जुड़ गया जो, संयुक्त। अयुक्त अर्थात वियुक्त—जो अपने से जुड़ा हुआ नहीं है। वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। युक्त सदा अपने से जुड़ा रहता है। वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। उसके सब लिंक दूसरों से होते हैं। वह किसी का पिता है, किसी का पति है, किसी का मित्र है, किसी का शत्रु है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है, किसी की बहन है, किसी की पत्नी है। लेकिन खुद कौन है, इसका उसे कोई पता नहीं होता। उसकी अपने बाबत सब जानकारी दूसरा के बाबत जानकारी होता है। पिता है, अर्थात बेटे से कुछ संबंध है। पति है, यानी पत्नी से कोई संबंध है। उसकी अपने संबंध में सारी खबर दूसरों से जुड़े होने की होती है। अगर हम उससे पूछें कि नहीं, तू पिता नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं—तू कौन है? हू आर यू? तो वह कहेगा, कैसा फिजूल सवाल पूछते हैं! मैं तो पिता हूं मैं तो पति हूं मैं तो क्लर्क हूं, मैं तो मालिक हूं। लेकिन ये सब फंक्यास हैं। यह सब दूसरों से जुड़े होना है। अयुक्त व्यक्ति दूसरों से जुड़ा होता है। जो दूसरों से जुड़ा होता है, उसमें भावना कभी पैदा नहीं होती। क्योंकि भावना तभी पैदा होती है, जब कोई अपने से जुड़ता है। जब अपने भीतर के झरनों से कोई जुड़ता है, तब भावना का स्फुरण होता है। जो दूसरों से जुड़ता है, उसमें भावना नहीं होती—एक। जो दूसरों से जुड़ा होता है, वह सदा अशांत होता है—दो। क्योंकि शाति का अर्थ ही अपने भीतर जो संगीत की अनंत धारा बह रही है, उससे संयुक्त हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
🏹 शाति का अर्थ है, इनर हार्मनी, शाति का अर्थ है, मैं अपने भीतर तृप्त हूं? संतुष्ट हूं। अगर सब भी चला जाए, चांद—तारे मिट जाए, आकाश गिर जाए, पृथ्वी चली जाए, शरीर गिर जाए, मन न रहे, फिर भी मैं जो हूं, काफी हूं —मोर दैन इनफ—जरूरत से ज्यादा, काफी हूं।पाम्पेई नगर में, पाम्पेई का जब विस्फोट हुआ, ज्वालामुखी फूटा, तो सारा गांव भागा। आधी रात थी। गांव में एक फकीर भी था। कोई अपनी सोने की तिजोरी, कोई अपनी अशर्फियों का बंडल, कोई फर्नीचर, कोई कुछ, कोई कुछ, जो जो बचा सकता है, लोग लेकर भागे। फकीर भी चला भीड़ में, चला, भागा नहीं। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए या आगे कुछ होना चाहिए। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए, जिससे भागो, या आगे कुछ होना चाहिए, जिसके लिए भागो। सारा गाव भाग रहा है, फकीर चल रहा है। लोगों ने उसे धक्के भी दिए और कहा कि यह कोई चलने का वक्त है! भागों। पर उसने कहा, किससे भाग और किसके लिए भागूं? लोगों ने कहा, पागल हो गए हो! यह कोई वक्त चलने का है। कोई टहल रहे हो तुम! यह कोई तफरीह हो रही है! उस आदमी ने कहा, लेकिन मैं किससे भाग! मेरे पीछे कुछ नहीं, मेरे आगे कुछ नहीं। लोगों ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उससे कहा कि कुछ बचाकर नहीं लाए! उसने कहा, मेरे सिवाय मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैंने कभी कोई चीज बचाई नहीं, इसलिए खोने का उपाय नहीं है। मैं अकेला काफी हूं। कोई रो रहा है कि मेरी तिजोरी छूट गई। कोई रो रहा है कि मेरा यह छूट गया। कोई रो रहा है कि मेरा वह छूट गया। सिर्फ एक आदमी भीड़ में हंस रहा है। लोग उससे पूछते हैं, तुम हंस क्यों रहे हो? क्या तुम्हारा कुछ छूटा नहीं? वह कहता है कि मैं जितना था, उतना यहां भी हूं। मेरा कुछ भी नहीं छूटा है। उस अशांत भीड़ में अकेला वही आदमी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। बाकी सब कुछ न कुछ बचाकर लाए हैं, फिर भी अशात हैं। और वह आदमी कुछ भी बचाकर नहीं लाया और फिर भी शांत है। बात क्या है? युक्त पुरुष शांत हो जाता है, अयुक्त पुरुष अशात होता है। ज्ञानी युक्त होकर शाति को उपलब्ध हो जाता है।













*ओशो :* 🏹 विक्षेपरहित चित्त में शुद्ध अंतःकरण फलित होता है? या शुद्ध अंतःकरण विक्षेपरहित चित्त बन जाता है? कृष्ण जो कह रहे हैं, वह हमारी साधारण साधना की समझ के बिलकुल विपरीत है। साधारणत: हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं।यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों—जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य—कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है। किसान गेहूं बोता है, तो फसल आती है। गेहूं के साथ भूसा भी आता है। लेकिन भूसे को अगर बो दिया जाए, तो भूसे के साथ गेहूं नहीं आता। ऐसे किसान सोच सकता है कि जब गेहूं के साथ भूसा आता है, तो उलटा क्यों नहीं हो सकता है! भूसे को बो दें, तो गेहूं साथ आ जाए—वाइस—वरसा क्यों नहीं हो सकता? लेकिन भूसा बोने से सिर्फ भूसा सड़ जाएगा, गेहूं तो आएगा ही नहीं, हाथ का भूसा भी जाएगा। भूसा आता है गेहूं के साथ, गेहूं भूसे के साथ नहीं आता है।
🏹 अंतःकरण शुद्ध हो, तो चित्त के विक्षेप सब खो जाते हैं, विक्षिप्तता खो जाती है। लेकिन चित्त की विक्षिप्तता को कोई खोने में लग जाए, तो अंतःकरण तो शुद्ध होता नहीं, चित्त की विक्षिप्तता और बढ़ जाती है। जो आदमी अशात है, अगर वह शात होने की चेष्टा में और लग जाए, तो अशांति सिर्फ दुगुनी हो जाती है। अशांति तो होती ही है, अब शांत न होने की अशांति भी पीड़ा देती है। लेकिन अंतःकरण कैसे शुद्ध हो जाए? पूछा जा सकता है कि अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? जब तक विचार आ रहे, विक्षेप आ रहे, विक्षिप्तता आ रही, विकृतियां आ रहीं, तब तक अंतःकरण शुद्ध कैसे हो जाएगा? कृष्ण अंतःकरण शुद्ध होने को पहले रखते हैं, पर वह होगा कैसे?
🏹 यहां सांख्य का जो गहरा से गहरा सूत्र है, वह आपको स्मरण दिलाना जरूरी है। सांख्य का गहरा से गहरा सूत्र यह है कि अंतःकरण शुद्ध है ही। कैसे हो जाएगा, यह पूछता ही वह है, जिसे अंतःकरण का पता नहीं है। जो पूछता है, कैसे हो जाएगा शुद्ध? उसने एक बात तो मान ली कि अंतःकरण अशुद्ध है। आपने अंतःकरण को कभी जाना है? बिना जाने मान रहे हैं कि अंतःकरण अशुद्ध है और उसको शुद्ध करने में लगे हैं। अगर अंतःकरण अशुद्ध नहीं है, तो आपके शुद्ध करने की सारी चेष्टा व्यर्थ ही हो रही है। और यह चेष्टा जितनी असफल होगी—सफल तो हो नहीं सकती, क्योंकि जो शुद्ध है, वह शुद्ध किया नहीं जा सकता, लेकिन जो शुद्ध है, उसे शुद्ध करने की चेष्टा असफल होगी—असफलता दुख लाएगी, असफलता विषाद लाएगी, असफलता दीनता—हीनता लाएगी, असफलता हारापन, फ्रस्ट्रेशन लाएगी। और बार—बार असफल होकर आप यह कहेंगे, अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, अशुद्धि बहुत गहरी है। आप जो निष्कर्ष निकालेंगे, निष्पत्ति निकालेंगे, वह बिलकुल ही उलटी होगी।
🏹 एक घर में अंधेरा है। तलवारें लेकर हम घर में घुस जाएं और अंधेरे को बाहर निकालने की कोशिश करें। तलवारें चलाए, अंधेरे को काटें—पीटें। अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। थक जाएंगे, हार जाएंगे, जिंदगी गंवा देंगे, अंधेरा बाहर नहीं निकलेगा। क्यों? तो शायद सारी मेहनत करने के बाद हम बैठकर सोचें कि अंधेरा बहुत शक्तिशाली है, इसलिए बाहर नहीं निकलता। तर्क अनेक बार ऐसे गलत निष्कर्षों में ले जाता है, जो ठीक दिखाई पड़ते हैं; यही उनका खतरा है। अब यह बिलकुल ठीक दिखाई पड़ता है कि इतनी मेहनत की और अंधेरा नहीं निकला, तो इसका मतलब साफ है कि मेहनत कम पड़ रही है, अंधेरा ज्यादा शक्तिशाली है। सचाई उलटी है। अगर अंधेरा शक्तिशाली हो, तब तो किसी तरह उसे निकाला जा सकता है। शक्ति को निकालने के लिए बड़ी शक्ति ईजाद की जा सकती है। अंधेरा है ही नहीं, यही उसकी शक्ति है। वह है ही नहीं, इसलिए आप उसको शक्ति से निकाल नहीं सकते। वह नान—एक्झिस्टेंशियल है, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। और जिसका अस्तित्व नहीं है, उसे तलवार से न काटा जा सकता है, न धक्के से निकाला जा सकता है। असल में अंधेरा सिर्फ एब्सेंस है किसी चीज की, अंधेरा अपने में कुछ भी नहीं है। अंधेरा सिर्फ अनुपस्थिति है प्रकाश की, बस। इसलिए आप अंधेरे के साथ सीधा कुछ भी नहीं कर सकते हैं। और अंधेरे के साथ कुछ भी करना हो, तो प्रकाश के साथ कुछ करना पड़ता है। प्रकाश जलाएं, तो अंधेरा नहीं होता। प्रकाश बुझाए, तो अंधेरा हो जाता है। सीधा अंधेरे के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अंधेरा नहीं है। और जो नहीं है, उसके साथ जो सीधा कुछ करने में लग जाएगा, वह अपने जीवन को ऐसे उलझाव में डाल देता है, जिसके बाहर कोई भी मार्ग नहीं होता। वह एकर्डिटी में पड़ जाता है।
🏹 अंतःकरण अगर शुद्ध है, तो अंतःकरण को शुद्ध करने की सब चेष्टा खतरनाक है, अंधेरे को निकालने जैसी चेष्टा है। क्योंकि जो नहीं है अशुद्धि, उसे निकालेंगे कैसे? सांख्य कहता है, अंतःकरण अशुद्ध नहीं है। और अगर अंतःकरण भी अशुद्ध हो सकता है, तो इस जगत में फिर शुद्धि का कोई उपाय नहीं है। फिर शुद्ध कौन करेगा? क्योंकि जो शुद्ध कर सकता था, वह अशुद्ध हो गया है। अंतःकरण अशुद्ध नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो अंतःकरण ही शुद्धि है—दि वेरी प्योरीफिकेशन, दि वेरी प्योरिटी। अंतःकरण शुद्ध ही है। लेकिन अंतःकरण का हमें कोई पता नहीं है कि क्या है। आप किस चीज को अंतःकरण जानते हैं? अंग्रेजी में एक शब्द है, कांशिएंस। और गीता के जिन्होंने भी अनुवाद किए हैं, उन्होंने अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस किया है। उससे गलत कोई अनुवाद नहीं हो सकता। कांशिएंस अंतःकरण नहीं है। काशिएंस अंतःकरण का धोखा है। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा, क्योंकि वह बहुत गहरे, रूट्स में बैठ गई भ्रांति है सारे जगत में।
🏹 जहा भी गीता पढ़ी जाती है, वहां अंतःकरण का अर्थ कांशिएंस कर लिया जाता है। हम भी अंतःकरण से जो मतलब लेते हैं, वह क्या है? आप चोरी करने जा रहे हैं। भीतर से कोई कहता है, चोरी मत करो, चोरी बुरी है। आप कहते हैं, अंतःकरण बोल रहा है। यह कांशिएंस है, अंतःकरण नहीं। यह सिर्फ समाज के द्वारा डाली गई धारणा है, अंतःकरण नहीं। क्योंकि अगर समाज चोरों का हो, तो ऐसा नहीं होगा। ऐसे समाज हैं। जाट हैं। तो जाट लड़के की शादी नहीं होती, जब तक वह दो—चार चोरियां न कर ले। जाट का लड़का जब चोरी करने जाता है, तो कभी उसके मन में नहीं आता कि बुरा कर रहा है। अंतःकरण उसके पास भी है, आपके पास ही नहीं है। लेकिन सोशल जो बिल्ट—इन आपके भीतर डाली गई धारणा है, वह उसके पास नहीं है।
🏹 मेरे एक मित्र पख्तून इलाके में घूमने गए थे। तो पेशावर में उन्हें मित्रों ने कहा कि पख््तून इलाके में जा रहे हैं, जरा सम्हलकर बैठना। जीप तो ले जा रहे हैं, लेकिन होशियारी रखना। उन्होंने कहा, क्या, खतरा क्या है? हमारे पास कुछ है नहीं लूटने को। उन्होंने कहा कि नहीं, यह खतरा नहीं है। खतरा यह है कि पख्तून लड़के अक्सर सड्कों पर निशाना सीखने के लिए लोगों को गोली मार देते हैं—निशाना सीखने के लिए; दुश्मन को नहीं! पख्तून लड़के निशाना सीखने के लिए सड़क के किनारे से चलती हुई कार में गोली मारकर देखते हैं कि निशाना लगा कि नहीं। मित्र तो बहुत घबड़ा गए। उन्होंने कहा कि आप क्या कहते हैं, निशाना लगाने के लिए! तो क्या उनके पास कोई अंतःकरण नहीं है?
🏹 एक हिंदू को कहें कि चचेरी बहन से शादी कर ले, तो उसका। अंतःकरण इनकार करता है, मुसलमान का नहीं करता। कारण यह नहीं है कि मुसलमान के पास अंतःकरण नहीं है। सिर्फ चचेरी बहन से शादी करने की धारणा का भेद है। वह समाज देता है। वह अंतःकरण नहीं है। समाज ने एक इंतजाम किया है, बाहर अदालत बनाई है और भीतर भी एक अदालत बनाई है। समाज ने पुख्ता इंतजाम किया है कि बाहर से वह कहता है कि चोरी करना बुरा है; वहा पुलिस है, अदालत है। लेकिन इतना काफी नहीं है, क्योंकि भीतर भी एक पुलिसवाला होना चाहिए, जो पूरे वक्त कहता रहे कि चोरी करना बुरा है। क्योंकि बाहर के पुलिसवाले को धोखा दिया जा सकता है। उस हालत में भीतर का पुलिसवाला काम पड़ सकता है।
🏹 काशिएंस अंग्रेजी का जो शब्द है, उसको हमें कहना चाहिए अंतस—चेतन, अंतःकरण नहीं। सांख्य का अंतःकरण, बात ही और है। अंतःकरण को अगर अंग्रेजी में अनुवादित करना हो, तो कांशिएंस शब्द नहीं है। अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है ठीक। क्योंकि अंतःकरण का मतलब होता है, दि इनरमोस्ट इंस्टूमेंट, अंतरतम उपकरण, अंतरतम—जहां तक अंतस में जाया जा सकता है भीतर—वह जो आखिरी है भीतर, वही अंतःकरण है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब आत्मा नहीं।
🏹 अब यह बड़े मजे की बात है, अंतःकरण का मतलब आत्मा नहीं है। क्योंकि आत्मा तो वह है, जो बाहर और भीतर दोनों में नहीं है, दोनों के बाहर है। अंतःकरण वह है, आत्मा के निकटतम जो उपकरण है, जिसके द्वारा हम बाहर से जुड़ते हैं। समझ लें कि आत्मा के पास एक दर्पण है, जिसमें आत्मा प्रतिफलित होती है, वह अंतःकरण है, निकटतम। आत्मा में पहुंचने। के लिए अंतःकरण आखिरी सीढ़ी है। और अंतःकरण आत्मा के इतने निकट है कि अशुद्ध नहीं हो सकता। आत्मा की यह निकटता ही उसकी शुद्धि है। यह अंतःकरण कांशिएंस नहीं है, जो हमारे भीतर, जब हम सड़क पर चलते हैं और बाएं न चलकर दाएं चल रहे हों, तो भीतर से कोई कहता है कि दाएं चलना ठीक नहीं है, बाएं चलना ठीक है। यह अंतःकरण नहीं है। यह केवल सामाजिक आंतरिक व्यवस्था है। यह अंतस—चेतन है, जो समाज ने इंतजाम किया है, ताकि आपको व्यवस्था और अनुशासन दिया जा सके।समाज अलग होते हैं, व्यवस्था अलग हो जाती है। अमेरिका में चलते हैं, तो बाएं चलने की जरूरत नहीं है। वहां अंतःकरण— जिसको हम अंतःकरण कहते हैं—वह कहता है, दाएं चलो, बाएं मत चलना। क्योंकि नियम बाएं चलने का नहीं है, दाएं चलने का है। सामाजिक व्यवस्था की जो आंतरिक धारणाएं हैं, वे अंतःकरण नहीं हैं।
🏹 तो अंतःकरण का हमें पता ही नहीं है, इसका मतलब यह हुआ। हम जिसे अंतःकरण समझ रहे हैं, वह बिलकुल ही भ्रांत है। अंतःकरण नैतिक धारणा का नाम नहीं है, अंतःकरण मारैलिटी नहीं है। क्योंकि मारैलिटी हजार तरह की होती हैं, अंतःकरण एक ही तरह का होता है। हिंदू की नैतिकता अलग है, मुसलमान की नैतिकता अलग, जैन की नैतिकता अलग, ईसाई की नैतिकता अलग, अफ्रीकन की अलग, चीनी की अलग। नैतिकताए हजार हैं, अंतःकरण एक है।
🏹 अंतःकरण शुद्ध ही है। आत्मा के इतने निकट रहकर कोई चीज अशुद्ध नहीं हो सकती। जितनी दूर होती है आत्मा से, उतनी अशुद्ध की संभावना बढ़ती है। अगर ठीक से समझें, मोर दि डिस्टेंस मोर दि इंप्योरिटी। जैसे एक दीया जल रहा है यहां, दीए की बत्ती जल रही है। बत्ती के बिलकुल पास रोशनी का वर्तुल है, वह शुद्धतम है। फिर बत्ती की रोशनी आगे गई; फिर धूल है, हवा है, और रोशनी अशुद्ध हुई। फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई; फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई। और थोड़ी दूर जाकर हम देखते हैं कि रोशनी नहीं है, अंधेरा है। एक—एक कदम रोशनी जा रही है और अंधेरे में डूबती जा रही है। शरीर तक आते—आते सब चीजें अशुद्ध हो जाती हैं, आत्मा तक जाते—जाते सब शुद्ध हो जाती हैं। शरीर के निकटतम इंद्रियां हैं। इंद्रियों के निकटतम अंतस—इंद्रियां हैं। अंतस—इंद्रियों के निकटतम स्मृति है। स्मृति के निकटतम बुद्धि है—प्रायोगिक। प्रायोगिक, एप्लाइड इंटलेक्ट के निकटतम अप्रायोगिक बुद्धि है। अप्रायोगिक बुद्धि के नीचे अंतःकरण है। अंतःकरण के नीचे आत्मा है। आत्मा के नीचे परमात्मा है। ऐसा अगर खयाल में आ जाए, तो सांख्य कहता है कि अंतःकरण शुद्ध ही है। वह कभी अशुद्ध हुआ नहीं। लेकिन हमने अंतःकरण को जाना नहीं है, इसलिए लोग पूछते, अंतःकरण कैसे शुद्ध हो? अंतःकरण शुद्ध नहीं किया जा सकता। करेगा कौन? और जो शुद्ध है ही, वह शुद्ध कैसे किया जा सकता है? पर जाना जा सकता है कि शुद्ध है। कैसे जाना जा सकता है?
🏹 एक ही रास्ता है—पीछे हटें, पीछे हटें, अपने को पीछे हटाएं, अपनी चेतना को सिकोड़े, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ लेता है। शरीर को भूलें, इंद्रियों को भूलें। छोड़े बाहर की परिधि को, और भीतर चलें। अंतस—इंद्रियों को छोड़े, और भीतर चलें। स्मृति को छोड़े, और भीतर चलें। भीतर याद आ रही है, शब्द आ रहे हैं, विचार आ रहे हैं, स्मृति आ रही है। छोड़े, कहें कि यह भी मैं नहीं हूं। कहें कि नेति—नेति, यह भी मैं नहीं हूं। हैं भी नहीं क्योंकि जो देख रहा है भीतर कि यह स्मृति से विचार आ रहा है वह अन्य है, वह भिन्न है, वह पृथक है। जानें कि यह मैं नहीं हूं। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, पक्का हो गया कि मैं आप नहीं हूं। नहीं तो देखेगा कौन आपको? देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला भिन्न हैं, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं।
🏹 यह सांख्य का मौलिक साधना—सूत्र है, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। फिर सांख्य की सारी साधना इसी भिन्नता के ऊपर गहरे उतरती है। फिर सांख्य कहता है, जो भी चीज दिखाई पड़ने लगे, समझना कि इससे भिन्न हूं। भीतर से देखें, शरीर दिखाई पडता है। और भीतर देखें, हृदय की धडकन सुनाई पड़ती है। आप भिन्न हैं। और भीतर देखें, विचार दिखाई पड़ते हैं। आप भिन्न है,। और भीतर देखें और भीतर देखें, समाज की धारणाएं हैं, चित्त पर बहुत सी परतें हैं—वे सब दिखाई पड़ती हैं। और उतरते जाएं। आखिर में उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां अंतःकरण है, सब शुद्धतम है। लेकिन शुद्धतम, वह भी भिन्न है; वह भी अलग है। इसीलिए उसको आत्मा नहीं कहा, उसको भी अंतःकरण कहा। क्योंकि आत्मा उस शुद्धतम के भी पार है। शुद्धतम का अनुभव कैसे होगा? आपको अशुद्धतम का अनुभव कैसे होता है?
🏹 कोई मुझसे आकर पूछता है, शुद्ध का हम अनुभव कैसे करेंगे? तो उसको मैं कहता हूं कि तुम बगीचे की तरफ चले। अभी बगीचा नहीं आया, लेकिन ठंडी हवा मालूम होने लगी। तुम्हें कैसे पता चल।? जाता है कि ठीक चल रहे हैं? क्योंकि ठंडी हवा मालूम होने लगी। फिर तुम और बढ़ते हो; सुगंध भी आने लगी; तब तुम जानते हो कि और निकट है बगीचा। अभी बगीचा आ नहीं गया है। शायद अभी दिखाई भी नहीं पड़ रहा हो। और निकट बढ़ते हो, अब हरियाली दिखाई भी पड़ने लगी। अब बगीचा और निकट आ गया है। अभी फिर भी हम बगीचे में नहीं पहुंच गए हैं। फिर हम बगीचे के बिलकुल द्वार पर खड़े हो गए। सुगंध है, शीतलता है, हरियाली है, चारों तरफ शांति और सन्नाटा और एक वेल बीइंग, एक स्वास्थ्य का भाव घेर लेता है।
🏹 ऐसे ही जब कोई भीतर जाता है, तो आत्मा के जितने निकट पहुंचता है, उतना ही शात, उतना ही मौन, उतना ही प्रफुल्लित, उतना ही प्रसन्न, उतना ही शीतल होने लगता है। जैसे —जैसे भीतर चलता है, उतना ही प्रकाशित, उतना ही आलोक से भरने लगता है। जैसे—जैसे भीतर चलने लगता है, कदम—कदम भीतर सरकता है, कहता है, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। पहचानता है, रिकग्नाइज करता है—यह भी नहीं। यह दृश्य हो गया, तो मैं नहीं हूं। मैं तो वहां तक चलूंगा, जहां सिर्फ द्रष्टा रह जाए। तो द्रष्टा जब अंत में रह जाए, उसके पहले जो मिलता है, वह अंतःकरण है। अंतःकरण जो है, वह अंतर्यात्रा का आखिरी पड़ाव है। आखिरी पड़ाव, मंजिल नहीं। मंजिल उसके बाद है। यह अंतःकरण शुद्ध ही है, इसीलिए सांख्य की बात कठिन है। कोई हमें समझाए कि शुद्ध कैसे हो, तो समझ में आता है। सांख्य कहता है, तुम शुद्ध हो ही। तुम कभी गए ही नहीं वहां तक जानने, जहां शुद्धि है। तुम बाहर ही बाहर घूम रहे हो घर के। तुम कभी घर के भीतर गए ही नहीं। घर के गर्भ में परम शुद्धि का वास है। उस परम शुद्धि के बीच आत्मा और उस आत्मा के भी बीच परमात्मा है। पर वहा गए ही नहीं हम कभी। घर के बाहर घूम रहे हैं। और। घर के बाहर की गंदगी है।
🏹 एक आदमी घर के बाहर घूम रहा है और सड़क पर गंदगी पड़ी है। वह कहता है इस गंदगी को देखकर कि मेरे घर के अंदर भी सब गंदा होगा, उसको मैं कैसे शुद्ध करूं? हम उसे कहते हैं, यह गंदगी घर के बाहर है। तुम घर के भीतर चलो; वहां कोई गंदगी नहीं है। तुम इस गंदगी से आब्सेस्ट मत हो जाओ। यह घर के बाहर होने की वजह से है। यहां तक वह शुद्धि की धारा नहीं पहुंच पाती है, माध्यमों में विकृत हो जाती है, अनेक माध्यमों में विकृत हो जाती। है। अंदर चलो, भीतर चलो, गो बैक, वापस लौटो।
🏹 तो कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध होता है, ऐसा जिस दिन। जाना जाता है, उसी दिन चित्त के सब विक्षेप, चित्त की सारी ‘ विक्षिप्तता खो जाती है—खोनी नहीं पड़ती। इसे ऐसा समझें, एक पहाड़ के किनारे एक खाई में हम बसे हैं। अंधेरा है बहुत। सीलन है। सब गंदा है। पहाड़ को घेरे हुए बादल घूमते हैं। वे वादी को, खाई को ढक लेते हैं। उनकी वजह से उनपर का सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता। उनकी काली छायाएं डोलती हैं घाटी में और बड़ी भयानक मालूम होती हैं। एक आदमी शिखर पर खड़ा है, वह कहता है, तुम पहाड़ चढ़ो। लेकिन हम नीचे से पूछते हैं कि इन बादलों ‘से छुटकारा कैसे होगा? ये काली छायाएं सारी घाटी को घेरे हुए हैं, इनसे मुक्ति कैसे होगी? वह आदमी कहता है, तुम इनकी फिक्र छोड़ो, तुम पहाड़ चढ़ो। तुम उस जगह आ जाओगे, जहां तुम पाओगे कि बदलिया : नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो। और जिस दिन तुम पाओगे कि बदलिया नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो, उस दिन बदलिया तुम पर कोई छाया नहीं डालतीं।
🏹 मन के जो विक्षेप हैं, विक्षिप्तताएं हैं, विकार हैं, वे बदलियों की तरह हैं। और हम पर छाया डालते हैं, क्योंकि हम घाटियों में जीते हैं। कृष्ण कहते हैं, चलो अंतःकरण की शुद्धि की यात्रा पर। जब तुम अंतःकरण पर पहुंचोगे, तब तुम हसोगे कि ये बदलिया, जो बड़ी पीड़ित करती थीं, अब ये नीचे छूट गई हैं। अब इनका कोई खयाल भी नहीं आता, अब ये कोई छाया भी नहीं डालतीं। अब इनसे कोई संबंध ही नहीं है। अब सूरज आमने—सामने है। अब बीच में कोई बदलियों का वितान नहीं है, कोई जाल नहीं है। विचार घाटियों के ऊपर बादलों की भांति हैं। जो अंतःकरण तक पहुंचता है, वह शिखर पर पहुंच जाता है। वहां सूर्य का प्रकट प्रकाश है। यह यात्रा है, यह शुद्धि नहीं है। यह यात्रा है, शुद्धि फल है। पता चलता है कि शुद्ध है।


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