*क्यों गुप्तकाल को हिन्दू-पुनर्जागरण या
स्वर्णयुग का काल माना जाता है*
गुप्तकाल सांस्कृतिक प्रस्फुटन या विकास का युग था। इस युग में धर्म, कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की अदभुत प्रगति हुई। इसलिए, अनेक विद्वानो ने गुप्तकाल को हिन्दू-पुनर्जागरण या स्वर्णयुग का काल माना है। इस लेख में हम पाठको का मार्गदर्शन करेंगे की गुप्तकाल को क्यों प्राचीन भारत का स्वर्णयुग माना जाता है।
गुप्तकाल सांस्कृतिक प्रस्फुटन या विकास का युग था। इस युग में धर्म, कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की अदभुत प्रगति हुई। इसलिए, अनेक विद्वानो ने गुप्तकाल को हिन्दू-पुनर्जागरण या स्वर्णयुग का काल माना है। इस लेख में हम पाठको का मार्गदर्शन करेंगे की गुप्तकाल को क्यों प्राचीन भारत का स्वर्णयुग माना जाता है।
#गुप्तकाल और धार्मिक दृष्टिकोण
गुप्तकाल
धार्मिक दृष्टिकोण से ब्राहमणधर्म के पुनरुत्थान का युग था। इस समय
ब्राहमणधर्म की प्रतिष्ठा स्थापित हुई, मंदिरों और मूर्तियों का निर्माण
हुआ तथा अवतारवाद की धरना का उदय हुआ। विष्णु के दस अवतार मने
गए- मत्स्य, कुर्मी, वाराह,नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और
कल्कि। पौराणिक धर्म या नव-हिन्दुधर्म की आधारशिला इसी युग में रखी गई।
यज्ञ, बलिप्रथा
एवं भक्ति की भावना भी बलवती बन गई। इस समय ब्राह्मणधर्म के अंतर्गत
वैष्णवधर्म सबसे प्रधान बन गया। अधिकांश गुप्त सम्राटो ने इसी धर्म को
अपनाया तथा इसे अपना संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने परमभागवत की उपाधि धारण
की तथा अपने सिक्को पर गरुड़, शंख, चक्र, गदा और लक्ष्मी की आकृति खुदवाई।
वैष्णवधर्म का प्रचार समस्त भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्वी एशिया,
हिन्दचीन, कम्बोडिया, मलाया और इंडोनेशिया तक हुआ। विष्णु और नारायण की
मूर्तियाँ, गरुड़ध्वज और मंदिर बने। गुप्तकालीन एक अभिलेख (गंगाधर अभिलेख)
में विष्णु को मधुसुदन कहा गया है।
ब्राह्मणधर्म के
अतिरिक्त बौद्धधर्म एवं जैनधर्म का भी गुप्तकाल में प्रचार-प्रसार हुआ, जो
गुप्त शासको की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। इस समय बौद्धधर्म का भी
विकास हुआ, यद्धपि उसकी अवस्था पहले जैसी उन्नत नहीं थी। इसके दो कारण
मुख्या रूप से उत्तरदायी थे। पहले, बौद्धधर्म का स्वरुप इतना परिवर्तित हो
चूका था की वह ब्राह्मणधर्म के सदृश्य बन गया। दूसरा बौद्धधर्म को
ब्राह्मणधर्म जैसा राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका।
#कला के क्षेत्र में विकास
गुप्तकाल
में स्थापत्य, मूर्तिकला एवं चित्रकला के अतिरिक्त अन्य विविध कलाओ का भी
उत्थान हुआ। कला इस समय मुख्यतया धर्म से प्रभावित थी। स्थापत्य के क्षेत्र
में मंदिर निर्माण सबसे महत्वपूर्ण है। विभिन्न देवताओ के लिए भव्य मंदिर
बनाये गए। इन मंदिरों में तकनिकी एवं निर्माण-सम्बन्धी अनेक विशेषताए जैसे
गर्भगृह, दालान, सभाभवन, ड्योढ़ी, प्राचीरयुक्त प्रांगण, चपटी और शिखरयुक्त
छत देखी जा सकती है।
मूर्तिकला का भी प्रगति गुप्तकाल में
हुई। गुप्तकालीन मूर्तिकला सैयत और नैतिक है। उसमे सजीवता तथा मौलिकता
मिलती है। अधिकांश मुर्तिया देवी-देवताओ, बुद्ध और तीर्थकरो की
बनी। चित्रकला के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। रंगों, रेखाओ के प्रयोग,
भावों एवं विषयों के चित्रीकरण अत्यंत पप्रभावशाली ढंग से किये गए।
गुप्तकालीन चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अजंता एवं बाघ की गुफाओ से मिले
हैं। अजंता की गुफाओ में जहा उच्चय वर्ग की संपन्नता को दर्शाया गया है,
वही बाघ के चित्रों में मानव के लोकिक जीवन की झांकी मिलती है। अन्य विविध
कलाओं, संगीत, नृत्य, नाटक, अभिनय-जैसी ललित कलाओ का भी पर्याप्त प्रगति
हुई।
#गुप्तकालीन शिक्षा और साहित्य
गुप्तकाल
शिक्षा एवं साहित्य के विकास का भी युग था। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14
प्रकार की विधाओ का उल्लेख है, जिनकी शिक्षा दी जाती
थी। पाटलिपुत्र, वल्लभी, उज्जैनी, कशी और मथुरा इस समय के प्रमुख शैक्षिक
केंद्र थे। नालंदा महाविहार की भी स्थापना इसी काल में हुई थी जो आगे चल कर
विश्वविख्यात शैक्षिणिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ।
गुप्तकाल
संस्कृत-भाषा एवं साहित्य के विकास के दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
संस्कृत अभिजात वर्ग की प्रमुख भाषा बन गयी। मुद्राओ एवं अभिलेखों में
इसका व्यवहार होने लगा। संस्कृत में ही धार्मिक ग्रंथो,नाटको एवं
प्रशस्तितियो की रचना हुई। अनेक पुरानो की रचना इसी कल में हुई। महाभारत और
रामायण का भी अंतिम संकलन इसी काल में हुआ।
#गुप्त काल में विज्ञान एवं तकनीक
विज्ञान
और तकनीक की विभिन्न शाखाओ का विकास भी गुप्तकाल में हुआ। विज्ञान के
क्षेत्र में सबसे अधिक प्रगति गणित एवं ज्योतिष विद्या में हुई। आर्यभट को
गुप्तयुग का सबसे महँ वैज्ञानिक- गणितज्ञ एवं ज्योतिष माना जाता है।
उन्होंने अपने ग्रन्थ अर्याभाटीय में यह प्रमाणित कर दिया की पृथ्वी गोल
है, अपनी धुरी पर घुमती है तहत इसी कारण ग्रहण लगता है। वराहमिहिर ने
ज्योतिष के क्षेत्र में महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रतिपादित किए। उन्होंने
पंच्सिद्धान्तिका, ब्रिहत्सहिता, ब्रिहज्जातक एवं लघुजातक की रचना की। इनमे
ज्योतिष-विज्ञान की महत्वपूर्ण बातें लिखी गई। फलित ज्योतिष पर
कल्याणवर्मन ने सारावली लिखी।
नागार्जुन रसायन और
धातुविज्ञान के विख्यात ज्ञाता थे। उन्होंने 'रस-चिकित्सा' का अविष्कार
किया तथा बताया कि सोना, चांदी, इत्यादि खनिज पदार्थो के रसायनिक प्रयोग से
रोगों की चिकित्सा हो सकती है। परा का अविष्कार भी इसी समय हुआ। आयुर्वेद
के सबसे प्रसिद्ध विद्द्वान धन्वंतरी थे, जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबारी
थे। गुप्तकालीन धातुओ का सबसे बढ़िया नमूना महरौली का लौह-स्तंभ एवं
सुल्तान्गुन्ज से प्राप्त ताम्रनिर्मित बुद्ध की भव्य प्रतिमा प्रस्तुत
करते हैं।
ऊपर वर्णित सांस्कृतिक उपलब्धियों के आधार पर
अनेक विद्वानों ने गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग,
हिन्दू-पुनर्जागरण का काल एवं राष्ट्रीयता के पुनरुत्थान का युग माना है।
राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने गुप्तयुग को स्वर्णिम
युग के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया,जब गुप्त राजाओ में भारत में
पुनः राजनीतक एकता स्थापित की, विदेशियों को पराजित किया, प्रशासनिक
व्यवस्था कायम की, धर्म, कला और साहित्य तथा ज्ञान-विज्ञानं को प्रोत्साहन
दिया।
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